Saturday, May 15, 2021

जैसे हिरण नाभि कस्तूरी 1

 जैसे हिरण नाभि कस्तूरी  1






आज सब जगह कोराना काल का प्रभाव है, हमारे प्रिय गुरुकुल के सहयोगी श्री भैरूलाल जुलानिया कोराना में चले गए।  कुछ दिन पहले बहिन पार्वती चली गईं, अब बहिन भगवती चलीं गईं। एक भय का माहौल है, पूज्य स्वामीजी समझाते थे , सृष्टि के प्रारम्भ से सत्य और ऋत साथ आए है। 

यही सृष्टि का आधार हैे। सत्य की विवेचना में हजारों ग्रंथ हैं। ऋत वह नियमन है , जिसके आधार पर सृष्टि निरंतर गतिशील हेैं। ऋत प्राकृतिक विधान है। नियमन है। स्वामीजी ने मनुष्य के दुख का कारण उसका बुद्धि चातुर्य ही बताया है।  हमारे यहाॅं कहावत है , सब चलता है , हम किसी नियम को ही नहीं मानते। 

अगर कोराना काल के प्रारम्भ से ही नियम को पूरा मानते तो आज यह समस्या विकराल नहीं होती। 

अभी भी मित्रों को टीका लगवाने के लिए कहना पड़ता हेै। हर मृत्यु के पीछे कारण का पता लगाया तो जबाब यही मिला , नियमन का पालन ही नहीं था। यही दुख है, स्वामीजी ने कहीं नहीं कहा भगवान का नाम लेते रहो ,उनका एक ही वाक्य रहा , मांगना नहीं , सामना करो ,वे परमहंस की कहानी सुनाते थे। पागल के हाथी के सामने शिष्य नारायण स्रोत का जप करने लगा , तब महावत ने कहा हटजा , हाथी उठाकर फैंक देगां उसने महावत की बात नहीं मानी , वह पाठ ही करने लगा , घायल होगया। तब गुरु ने कहा , तूने महावत की बात क्यों नहीं सुनी , वह भी तो परमात्मा का ही कथन था। 


दैव,दैव आलसी पुकारा , श्रुति का वचन है , उठो और सामना करो , 

उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत कठोपनिषद , यही पूज्य स्वामीजी की वह सीख है जो पिछले पचास साल से मार्गदर्शन कर रही हेै।

स्वामीजी का माग्र ऋत का ही मार्ग हैे। 

टनंतयात्रा में उनका नीलकंठ से आप्त वचन है , तुम्हारा विवेक जाग्रत होना ही महत्वपूर्ण हेै। स्वामीजी कहते थे, विश्वास , अंधविश्वास की ओर ढकेल देता हेें विचार अगर सही दिशा में है , सोचने का तरीका सही है तो वह विवेक सौंप जाता है। तब गुरु की देशना  अंतः करण में जग जाती है। 

3

यह कृति उसी देशना से उपजी है । कृति की प्रेरणा मित्र भैरूलाल जी के गुरुकुल के कार्यक्रम में अचानक उतर गई। 


  जब मेैं पहली बार गुरुकुल गया था , तब बस में वे मिले थे, वे महाविद्यालय के छात्र थे , और मेैं प्राध्यापक था , पत्नी साथ ही थी। बकानी की बस में तब प्रवेश पाना ही कठिन होता था। तब भैरूस्लाल जी ने अपनी भी सीट हमारे लिए छोड़दी और पास की सीट को खाली करा दिया। कंडक्टर से हमारा परिचय कराया। तब गुरुकुल में बस स्टोप था। यह आखिरी बस थी। भीड़ भी बहुत थी। स्वामीजी की कुटिया में तब गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था, लाइट भी नहीं थी। बस से उतरते ही पाया , सामने दूर कुटिया के बरामदे में स्वामीजी बैठे हैं , उनके पास ही एक युवक खड़ा था , वह हमें उतरते देखकर तेजी से दौड़ा , कुछ ही देर में हम उसके साथ कुटिया की तरफ बढ़ रहे थे ं

, उसी ने बताया , वह बीरम है , पहले गुरुकुल के स्कूल में कर्मचारी था , अब सरकार की नौकरी में आगया है। स्कूल का कार्य समाप्त होते ही वह स्वामीजी की सेवा में आजाता हैं। स्वामीजी दोपहर से ही आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, पास वाले कमरे में आपके ठहरने की व्यवस्था , करादी है। वह हमें खाना खिलाकर रात को अपने घर चला जाएगा। वही बीरम , कालांतर में अपनी सेंवानिवृत्ति  के  बाद स्वामीजी को ही सेवार्नित होगए। बाद में स्वामीजी के महाप्रयाण के बाद एक गुरुपूर्णिमा के दिन स्वामीजी के संवा में ही चले गए। उनकी संवा , और भक्ति अनुपम है। संत बीरम जी वास्तव में सेवामूर्ति ही रहे। 


मैं जब स्वामीजी से मिला था , तब नई नौकरी थी , विवाह हुआ ही था।स्वामीजी के पास कोई न पूजा थी , न कोई मंत्र , न वहाॅं ,किसी प्रकार का  कोई बाह्य उपचार ही  था। मेरा उनसे मिलने के प्रति आकर्षण का कारण यही था , क्या सन्यासियों के पास शक्ति होती है?जीवन में वास्स्तविक शांति क्या होती है? हम जिसे ईश्वर कहते हैं, क्या उन्हें इसका अनुभव भी होता है , या खाली ग्रंथ पाठ  ही रहता है?


 बचपन में अपने पिता को देखा था , वे गायत्री के उपासक थे , सुबह - शाम पूजा करते थे। दोपहर में ग्रंथ पाठ का उनका नियमित अभ्यास था। ग्यारह वर्ष की आयु में अलवर बड़े भाई साहब के पास चला गया। वहीं आगे की पढ़ाई हुई , बड़े भाई गृहस्थ संत थे। वे टूंडला के रामाश्रम सत्संग से जुड़े हुए थे। अलवर में उन दिनो अनेक संत आते-जाते रहते थे। भाई साहब अपने मित्रों के साथ अलवर की पहाड़ियों के स्थानो पर संतों की तलाश में जाते रहते थे। उनके साथ कई बार जाना हुआ। भाई साहब का घर एक प्रकार से आश्रम ही था। उनके अपने ही पुस्तकालय में श्रेष्ठ पुस्तकों का संग्रह था। वही परमसंत चतुर्भुज सहाय जी का पूरा साहित्य पढ़ा। पंडित मिहिलालजी जो भाई साहब के गुरु थे , उनसे वहीं मिलना हुआ। 

भाईसाहब ही एक प्रकार से मेरे पहले गुरु थे। जिन्होंने बचपन की चित्त भूमि पर आध्यात्म के बीजों का रोपण कर दिया था। 

बाद मेैं अलवर से अजमेर गया, वहाॅं से कोटा आगया था। कोटा में उन दिनो नगरपालिका की लाइब्रेरी के पुस्तकालयाध्यक्ष आचार्य बद्रीनारायण शास्त्री थे। वे संस्कृत ,आयुर्वेदऔरसाहित्य के महान विद्वान थे। वे महान तात्रिक थे। उन्होने तंत्र में दीक्षा दी। उनके यहाॅं हर मंगलवार को पूजा होती थी। वे देवी के असाधारण भक्त थे। जब वे प्रार्थना करते थे , भावावेश में उनकी छाती आरक्त हो जाती थी। उस जमाने के प्रसिद्ध तांत्रिक चंद्रास्वामी भी उनसे मिलने आए थे। उन्हीं दिनो में गीता भवन में प्रसिद्ध संत स्चामीी शरणानंद जी से मिलना हुआथा। बहिन के पास जो जालंधर में थी , उस जमाने महेष योगी वहाॅं आए थे , उनसे भी मिलना हुआ। 


मैं, सन् 1969 में ही झालावाड़ आगया था। तब गोदाम की तलाई पर घर था , वहीं अमरनाथ गंभीर भी रहते थे, वे गुरुकुल में रहा करते थे ,वे झालावाड़ रियासत में शिक्षा मंत्री थे ,  पर हर शनीवार को झालावाड़ आजाते थे। उन्होंने कई बार गुरुकुल चलने का आग्रह किया था। वे स्वामीजी की चर्चा करते थे। पर संयोग से मैं नहीं मिल पाया। फिर वहाॅं से देहली जाना होगया।  फिर राज्य सरकार के आदेश से जुलाई 1971 में  पुनः झालावाड़ आगया था। 


पर स्वामीजी से मिलना जुलाई 1972 में ही विवाह के बाद हो पाया। प्रकृति का अपना ही अनश्ुाासन है, बाद में जाना यहाॅं सब नियति पूर्व में तय कर देती है , बाद में उसी पूर्वनिर्धारित मार्ग पर चलना ही होता है।यही विधि है , एक मित्र ने पूछा था , क्या हमारा जीवन मरण , यश , अपयश , हानि लाभ , सब विधि के हाथ में ही है? विधि ही वह नियम है , जिसका नियमन हमने ही किया हे। हम ही अपने कर्मो , संकल्पों के आधीन ही है। विधि की रचना भगवान नहीं करते। हम ही रचना करके भूल जाते हैं। यही स्वामीजी ने समझाया था , हमें परम स्वंत्रता है , हम ही अपना अच्छा- बुरा खुद चयन करते हैं , पर हम भूल जाते हेैं।

मेैं अपनी स्वामीजी से मुलाकात की चर्चा कर रहा था। 


 काॅलेज खुल चुके थे , जुलाई 1972  की एक दोपहर में माणकजी की दुकान पर अचानक मिलना हुआ ,मेैं वहाॅं पर  घर के लिए किराने का सामान लेने गया था। वहीं दुकान के अंदर स्वामीजी बैठे हुए थे। उन्होंने माणकजी से पूछा क्या ये मजिस्ट्रेट हैं? स्वामीजी से माणकजी ने कहा नहीं काॅलेज में पढ़ाते हेंै।  तब स्वामीजी ने रघुनंदन आचार्य के घर आने को कहा। मेैं शाम को अपनी साइकिल से वहाॅं पहुंचा , लौटते समय उनका थैला , साइकिल पर था, हम दोनो पैदल मंगलपुरा  अपने घर चल पड़े थे।  


 उस दिन उनसे मेरा पहला सवाल यही था , क्या जीवन में ईश्र को पाया जा सकता है? मैंने तब विवेकानंद को पढ़ा था।  स्वामीजी के चेहरे पर तब अजीब सी शांति थी। उनका चेहरा आकर्षक था। वे कुछ देर मुझे देखते रहे , बोले हाॅं,  वह शक्ति है, छोटी सी धास के तिनके से लेकर , विशाल प्राणियों तक , जड़ , चेतन सब जगह  वही है। इसी जीवन में , इसी शरीर में उसे जाना जा सकता है।

 

वहाॅं कोई संकोच नहीं था। नहीं कोई ग्रंथ था। 

मैंने पूछा , घर चलेंगे , उन्होंने अपना थैला उठाया और चल दिए थे । सन 72 में हम मिले थे , सन 2000 में वे अपना थैला सौंपकर अपनी अंतिम यात्रा पूरी कर चले गए। थैले में दो चश्मे , एक आधा कुरता , एक आधी धोती ,कुल उनकी भौतिक संपत्ति यही थी।और उनके सानिध्य में उपजी आत्म्कृपा की अठूट संपत्ति, जो एक वसीयत और विरासत की तरह अविच्छिन्न है। वो कह रहे थे , पोखर की तरह मत रहना , पानी सड़ जाता है। कूप का जल जितना उलीचा जाता है , उतना ही आ जाता है। 


उस दिन मनीशा को मैसेज था , अंकल आपने लिखना क्यों बंद कर दिया , मेैंने उससे कहा अब किसी को जरूरत नहीं रही,, उसने कहा मुझे तो है, तभी योगवषिश्ठ की उक्ति याद आगई , अगर एक भी जिज्ञासु शेष  हो तो , मौन मत रहना।


लगा मनीशा के माध्यम से महाशक्ति ही इस अड़तालीस साल की यात्रा पर ले आई है। बहिन पार्वती चली गईं। भीलवाड़ा प्रवास में जब स्वामीजी पधारते थे , तब बृजेश अपने बच्चों के साथ घर पर स्वामीजी से मिलने आती थी। 

तब मनीशा बहुत छोटी लड़की थी। पार्वती जी उसकी नानी थीं। 

सत्संग और स्वाध्याय ही साधनसूत्र हैं , मन अचानक गुरुकुल में स्कूल के बड़े दरवाजे से होता हुआ , उस कुटिया की देहली पर अचानक पहुंच गया है। 


उस दिन छीतरसिंह जी का फोन था , आप एक दिन  कें लिए आजाओ , सुबह भोजन कर शाम को निकल जाना , यहाॅं कोई डर नहीं। मेैंने कहा मेरा तो मन रहता ही वहीं हेंै। बस तन को ही अब वहाॅं रखना हें , सूरदास का पद है , ऊधो  मोहे ब्रज बिसरत  नाहीं , उस कुटिया में बिताया एक- एक पल एक विद्युत की किरण की तरह कौंध गया है। 


शायद यही ध्यान हो , उस दिन बहिन  पार्चती का भीलवाड़ा से फोन था , भाई साहब स्वामीजी के पास उनके अंतिम समय में , जोेएक माह आपके घर रहने का अवसर मिला , मेैं उसे भूल ही नहीं पाती हॅंूूं , रोज याद कर लेती हूॅं श्री मद् भागवत में प्रसंग है, ,कृष्ण जब जारहे थे , जब उद्धव ने कहा था , मेैं आपके साथ जीवन भर साथ रहा , पर नहीं समझ पाया , तब भागवत के अंतिम अध्याय में कृष्ण , उद्धव को अपने शाश्वत रूप का दर्शन कराते हैं।  महापुरुष हमारे पास ही रहते हैं , हमारे साथ रहते हैं , पर अपने प्रमाद में अपने ही अहंकार के चश्मे को संभालते रह जाते हेै। जीवन भर अपनी निरपेक्ष दृष्टि खोए रखते है।  

 

उनकी देशना ही उनकी विररासत है। वह  मेरे पास धरोहर की तरह आज भी सुरक्षित है।

वे मेरे मित्र रघुनंदन आचार्य के यहाॅं ठहरे थे , वहाॅं से वे मेरे साथ चले आए थे। साईकिल पर थैला टाॅंग लिया था। वह थैला आज भी मेरे पास अपनी अटूट संपत्ति की तरह सुरक्षित है। 

उसके कुछ दिन बादही हम , दोनो पति-पत्नी  उनकी कुटिया पर गए थे।


उस कुटिया में कोई तस्वीर नहीं थी।  न कोई ग्रंथ था। न किसी प्रकार की पूजा थी। बस एक तखत था , आले में  ट्रांजिस्टर रखा हुआ था। कुछ स्वास्थ्य संबंधी पत्रिकाएॅंॅं आती थीं। समाचार पत्र भी, नियमित आता था। न कोई पूजा पाठ, न मंत्र जाप , पर एक शांति थी। एक अपरिहार्य आकर्षण  था मन न जाने क्यों उस कुटिया में खिंच गया था।



वहीं तब स्वामीजी के अभिन्न मित्र गंगारामजी पटेल मिले , ये गौरीशंकर के पिता थे।  उनकी ही छोड़ी गई भूमि पर गुरुकुल है। वे दोपहर में नियम से कुटिया पर आतेथे।, सलावद से बंशीलालजी आते थेो , स्वामीजी तब चाय खुद ही बनाते।बकानी से केसरीरलाल जी की पत्नी कभी पैदल तो कभी बस से आजाती थीं, जब दोचार लोग आजाते तब भेाजन वही बनातीं। स्वामीजी भोजन एक ही बार करतेथे , बकानी के परिवार वहाॅं से अपना टिफिन भिजवादेते थे।


डाह्या भाई रामगंजमंडी के गुजराती स्कूल के प्रधानाघ्यपक थे , मूलचंदजी दरवेश भवानीमंडी में रहते थे , पोस्ट मास्टर कन्हैयालाल जी भवानी मंडी में रहते थे , ये सभी लगभग हर इतवार को गुरुकुल बस से आजाते थे। 


ग्ुारुकुल स्वामीजी ने  सरकार को सौंप दिया था। स्कूल में बीरम , स्थाई कर्मचारी होगया था। वह स्कूल से अवकाश मिलते ही कुअिया का कार्य संभाल लेता , वही बीरम देव कुछ वर्ष पूर्व गुरु पूर्णिमा उत्सव समाप्त कर , अपना काम पूरा कर अनंत में विलीन होगया। 

 

हमारा नया विवाह था। गृहस्थी की अपनी समस्याएॅं थीं। तभी स्वामीजी मिले थे। घर -गृहस्थी की हर बात पूछते थे। नई नौकरी थी। एक दिन कहीं से आए , कुछ धन राशि भेंट में मिली थी। आए बोले ,घर के बुजुर्ग की तरह बोले , इसे रखो , खर्च मत करना  , तब से घर की समस्याएॅं अपने आप हल होती चली गईं।


पर मेरी ही गलती थी , मैं स्वामीजी की यात्रा का साक्षी तो रहा , पर मेरे ही पूर्वकृत संस्कारों के प्रभाव से ही मैं ैं स्वयं  उस यात्राके पुण्य लाभ से तब  वंचित  ही रहा। पर उनका कहीं भी  सायास इस यात्रा पर साथ ले चलने का आग्रह नहीं रहा। वे यही कहते थे , मेरे जाने के बाद ही मेरी बातंे समझ के साथ ले जाएंगी। जो कुछ भी सार तत्व हे , तुम्हें ं सोंप दिया है। तुम्हारे ताले की चाबी मेरे पास है , अभी समय नहीं आया , धैर्य रखो , प्रतीक्षा करो ? लगन मत छोडना , समय आने पर अपने जग जाओगे।  


सच बात यह है कि अगर पारस पत्थर भी हाथ में आजाए , तो इसकी कीमत हम नहीं कर पाते। साधारण पत्थर समझकर उसे भी कूड़े के ढेर पर डाल जाते हैं। अज्ञान से बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। हमारी इस आज की  दुनिया में बहुत भीड़ है , धन है , शोहरत है , मन वहीं अटक जाता है। 


तब स्वामीजी ने छोटी सी कहानी सुनाई्र थी वह आज भी याद है। एक  चूहा , रोटी की तलाश  में गया , मकान मालिक नया पिंजड़ा लाया था , चूहा उसका अंदाज नहीं लगा पाया , वह घुसा तो समझ गया , मामला गड़बड़ है । पीछे मुड़ा तब तक उसकी पूॅंछ कट गई थी।


वह अवाक था क्या किया जाए। 

तब तक दूसरा चूहा उधर आगया था , वह बोला क्या हुआ?

वह चूहा शांत स्वर में बोला भगवान के दर्शन हो गए थे।

वह दूसरा चूहा बोला , मुझे भी करादे।

वह उसे पिंजडें के पास ले गया, वह घुसा तब तक खटका उठ गया था , वह लौटा , तब तक पूॅंछ कट गई थी।

उसने पूछा , यह क्या कर दिया। 

वह पहला चूहा बोला , चुप रह। सबसे यही कहना , जब खटका गिरा तब तुझे , कौन याद आया था,भगवान ही याद आए , बस इतना ही , जब पूॅंछ कटे   तब यह कहने से बेहतर है , सबकी पूॅंछ कट जाए। 


तबसे सभी एक दूसरे की पूॅंछ कटाने के लिए उत्सुक होकर घूमते हैं।

बड़े मजे की बात है , जिसको कुछ नहीं पता , वही सबसे अधिक ईश्वर को बेचते हेंैं। उनके खरीददार बढ़ते ही जाते हेैं।


यह भीड़ उन्हीं की है। हम जनम लेते हैं , अकेले आते है। , फिर भीड़ ही हमारा मार्ग दर्शन करती है। हम बस उसके अंग बनकर अंत तक बहते रहते हैं। उस भीड़ से बाहर निकलकर अपने आप से मिलना , अपनी पहचान का पता करना ही आत्मज्ञान का पथ है।उस अकेले पन में ही आत्मकृपा का द्वार खुलता है।  


  


 


योग सूत्र

 योग सूत्र

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अक्सर हम यही शिकायत करते रहते हैं, कि जो जीवन जी रहे हैं, वह कठिनाई से कट रहा है, इससे भी बेहतर संभव है, हम उसें लिए  हम हर प्रकार के प्रयास करना चाहते है। हमारे ज्योतिषी, धार्मिक बाबाओ, तांत्रिको जिनकी संख्या भारत में ही करोड़ो के ऊपर है, इस माया जाल के उद्योग में संलग्न हैं।सबका कहना यही है, कि वर्तमान तो नर्क की तरह होता है, हम उसमें रह नही पाते, जी नहीं सकते, हम हमेशा सपनों में जीते हैं, सपनों में पैदा होते हैं, सपने देखते चले जाते हैं, हम जिसे यथार्थ कहते हैं, वह भी एक कल्पना ही है।जो दुखद अधिक है।

तो क्या यही हमारी नियति है? क्या हमारे लिए कठपुतली की तरह ही नाचना हमारी किस्मत में लिखा है? या हम बेहतर , शक्तिमय आनंदमय जीवन जीने के हकदार हैं? इन सवालों का उत्तर लगभग चार हजार वर्ष पूर्व भगवान पतंजलि ने तलाश किया था। उनका योगसूत्र आज भी थके हुए , हारे हुए मनुष्य के लिए एक नई सुखद यात्रा का प्रारम्भ है।


यह सही है कि हम जहां भी हैं, वहां इसी क्षण में ,,वहां रह नहीं  पाते ,कहीं ओर चले जाते हैं। जो दिखना चाहता है, उसे नहीं देखते, देखते है तो अपने रंग में देखते हैं, इन रंगांे से बाहर आना ही वर्तमान में आना है, जिसे हम पसंद नहीं करते, वह कटु-तिक्त नजर अता है।

स्वामीजी कहा करते थे, वर्तमान में रहो, यही योग है।

कहते थे, बहुत सीमित विधि है, न भूत में न भविष्य में। सपनों में चले जाते हो। ज्योही वर्तमान सेें भाग के बाहर चले जाते हो। मैं गया था, मैं जाऊगा, सपना ही है। एक जी चुके हो, एक जीना चाहते हो। जो जी लिया वहां भी सोचते हो,ऐसा करते तो कितना अच्छा था, फिर सपने शुरू हो जाते हैंैं, यह भूला हुआ मन सपना ही देखता है। यह वर्तमान में रह नहीं पाता। मन और प्राण की युति ही योग है। मन जब प्राण के संयुक्त होता है, वहां मात्र वर्तमान ही शेष रह जाता है।

अभी मित्र आए थे, बोले योग करता हूं,, उन्हें किस प्रकार बताया जाए कि  आसन प्राणायाम ही योग नहीं है। यह अग्रेजी का योगा है, योग तो जो जैसा जीवन है उसे वैसा ही स्वीकार करना। जहाॅं आवश्यकताओं की पूर्ति तो है, पर इच्छाओं के पीछे नहीं दौड़ना। 

-जो योगी हैं, वह जान जाता है, अब कहीं नहीं जाना, न भूत में न भविष्य में, जो  आता-जाता है, वह मन ही है। शरीर तो जहां है, वहीं रहता है, आता-जाता यह मन ही है। यह भी शरीर के साथ रह जाए, अब कहीं नहीं जाना, तब युति सध जाती है। यही तो योग है।

मन माने आपके विचार, जो या तो आगे जा रहे है, या पीछे लौट रहे हैं, जब यह पक्का पता हो जाता है, यह बेकार की यात्रा है, तब मुकान पर ठहरना शुरू होता है।

... जो तथाकथित योगी हैं, वे भी सपने ही बेच रहे हैं। उनका मन साधारण जन के मन से भी जटिल व कुटिल है। उनके मन की भूख और प्यास बहुत है।

योग मात्र रुकना है, अब कहीं नहीं जाना है। जहां जाना है, वहां बहिर्मुखता है। अंतर्मुखता घर की वापसी है। पर पहले रुकना होगा तभी पीछे मुड़ सकते हैं।

योग का प्रारंभ इसी जगत में होता है। अब कहंीं नहीं जाना। सब यात्राएं व्यर्थ हैं। यात्रा हमेशा सपने में होती है। वहां शाश्वत नहीं रहता। यह सपना ही यात्रा है। कहावत है, निराशा परम सुखं, किसी प्रकार की कोई आशा मत रखो। आशा ही मन है, स्मृति ही मन है, कल्पना ही मन है। जब यह मन थक जाता है, तब योग का प्रारंभ संभव है।

योग तो आंतरिक सत्संग है। अपने आपसे जुड़ा रहने का अहसास है। जो है वही परम है। वही सत्ता है, वही हमारा केन्द्र है। हम मात्र परिधि पर ही घूमते रहते हैं। बाहर कितना भी जाए,ॅ वहां यात्रा भटकाव है। ‘घर की वापसी’ अपने अंतःकरण पर लौटना है। पूज्य स्वामीजी कहा करते थे, बाह्य मन और अंतर्मन का मिलन ही योग है। बाह्यमन, जब अंतर्मुखी होता है वह  अंतर्मन में डूब जाता है।


Wednesday, February 19, 2020

अन्तर्यात्रा

अन्तर्यात्रा
(स्वामी श्री रामेश्वराश्रमजी महाराज से बातचीत)

अनुक्रमणिका
1. साधना की ओर 13
2. साधन सन्दर्भ 23
3. सार्थकता की खोज 29
4. क्या छोड़ा, क्या पाया? 33
5. जीवन-भाष्य 36
6. कर्म 39
7. साधना-रहस्य 44
8. दुःख के पार 50
9. सहज योग 55
10. साधन-सूत्र 57
11. अन्तर्यात्रा 64
12. कारण रहित कारण 67
13. स्थिति-प्रज्ञ 68
14. सत्संग 69
15. बस, एक छलांग 70
16. तनाव 71
17. उस पार 75
18. प्रयत्न 81
19. चेतना और जागरूकता 85
  20. परिशिष्ट-एक यात्रा       88


साधना की ओर
यह प्रश्न और कहीं नहीं, हर साधक के सम्मुख ही सबसे पहले उपस्थित होता है कि साधना क्यों ? हम चाहते क्या हैं ? मनुष्य की मांग क्या है ? अगर वह अपनी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता है। परन्तु अगर उत्तर नहीं से आए...तो यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है।
जिसका पेट खाली है उसके सामने भूख का सवाल सबसे बड़ा है। लगता है यही सबसे बड़ी जरूरत है। नौकरी, और नौकरी उससे बड़ी नौकरी या बड़ी दुकान खोलना, सब पेट भरने का ही तो साधन है। पर पेट कितना बड़ा है,जितना धन होता है, उतना ही खाली रहता है। किसी तरह जब पेट भरता है, तब शरीर की भूख जगती है। इसीलिए शरीर की भूख न जगे, हजारों साल से पेट की भूख पर नियंत्रण रखने की बात कही जा रही है। अनशन, उपवास सब उसी के रूप हैं। पेट की भूख और शरीर की भूख जैविक आवश्यकताएं हैं। इससे इतर मनुष्य की मानसिक और बौद्धिक आवश्यकताएं भी बढ़ती हैं। कला और संस्कृति, सभ्यता और विकास यात्रा, इन्हीं का विस्तार है। सभ्यता, मनुष्य की बहिर्मुखता का ही विस्तार है। मन चंचल है, गत्यात्मक है, इसीलिए सभ्यता निरन्तर गतिशील है। पर यह मन की स्वाभाविक अवस्था नही है। वह कितना भी गति में क्यों न हो, सदैव नहीं रह सकता। उसे प्रशांिन्त की स्थिति में आना ही होता है। हर श्रम का प्रारम्भ और अन्त प्रशान्ति में है। नींद से उठकर मनुष्य सब कुछ करता हुआ नींद में जाना चाहता है। यही उसके सम्पूर्ण जीवन की यात्रा है।
विश्राम, मन की स्थिरता हैं, यही कला और संस्कृति आकार ग्रहण करती है। संस्कृति मन की अन्तर्मुखी यात्रा है।
यह भी मनुष्य की मांग है। यहां सुख भी है, शान्ति भी है।
पेट की भूख और शरीर की भूख के बाद विलासिता की भूख बढ़ती है। विलासिता का आधार आकांक्षा है, संसार इसी कामना का ही विस्तार है।
मनुष्य सम्भावना की भूख में रहता है, निरन्तर कुछ न कुछ होने की सम्भावना। दैविक आवश्यकताओं के ऊपर मानसिक और बौद्धिक आवश्यकताएं है। यह जो भूख है, उसका आधार आकांक्षा है।
और इन सब आवश्यकताओं का एक लम्बा सिलसिला है, जिसमें कि मनुष्य उलझता है।
सवाल फिर खड़ा होता है।
यह सब क्यों ? मैं इतना सब कुछ क्यों चाहता हूं ? मैं आखिर जीवित ही क्यो हूं ? मैं इस लंबी यात्रा पर निरन्तर चल ही नहीं रहा हूं, दौड़ रहा हूं, आखिर किसलिए ?
पेट की भूख, समाप्त होते ही, तुष्टि देती है। शरीर अपनी कामक्षुधा की तृप्ति के बाद क्षणिक तुष्टि लेता है। सिलसिला रूकता नहीं है, चलता रहता है। पढ़ना रोज पढ़ना नौकरी तक। नौकरी से और दूसरी बड़ी नौकरी तक धन की ललक। आदिम पारस की ललक जो वस्तुएं देंगी। वस्तुएं जिनसे परितुष्टि प्राप्त होगी। शरीर क्षणिक है, जर्जर है, कब ढह जाए, इसीलिए अमृत की खोज हुई। शरीर ही नहीं रहा, तब तुष्टि किसे ?
अकसर इन्हीं सबके लिए उमर बीत जाती है।
मन्दिर, यज्ञ, तप, स्वाध्याय, गुरू भण्डारे इन सबके पीछे जो भीड़ है, वह क्या चाहती है ?
तुष्टि का अगाध भण्डार ! उसकी तृप्ति में कभी कोई कमी न आए। यही सुखोपासना सभ्यता का केन्द्र है।
संकल्प पूर्ति सुख देती है, और संकल्प पूर्ति का अभाव दुख देता है। यही सुख दुख की यात्रा है।
मनुष्य सुख चाहता है, मात्र सुख !
सुख अल्प है, दुःख अनन्त है।
इसीलिए ईश्वर की खोज है। एक बड़े आधार की खोज, जो दुख दूर करेगा अनवरत सुख देगा।
अनन्त सुख !
और यही नही मिलता है।
शेष रह जाता है विक्षोभ, व्यथा, दुख का प्रभाव यहीं से साधन यात्रा शुरू होती है।
स्थायी सुख की खोज शान्ति की खोज !
जहां अमृत है !
कामना पूर्ति से प्राप्त तुष्टि का भाव ही सुख है। यह क्षणिक है। मन कामनाओं का सागर है।
एक कामना की पूर्ति हो, इसके पूर्व ही हजारों कामनाएं पैदा हो जाती हैं। क्या वे सब पूरी हो पाती हैं ?
वस्तुगत उपलब्धियों की खोज में व्यक्ति डूबा रहता है। वे ही जीवन का साध्य हो जाती हैं।
और इधर जीवनी शक्ति निरन्तर क्षीण होती चली जा रही है। भारी छटपटाहट है।
वस्तु में सुख तलाशा, प्रयास किया। पर जब तक वस्तु आई शरीर धोखा दे रहा है।
लौटकर दुख ही शेष रहता है। विक्षोभ का धारावाही व्यूह मनुष्य को जकड़े रहता है।
सामान्यतः यही मनुष्य की यात्रा है।
मनुष्य यह मानकर चलता है कि यह जो दूसरा है, वह उसे सुख देगा। दूसरे की खोज ही संसार की यात्रा है। दूसरा पिता में, पत्नी में, पुत्र में समाज में, धन में मकान मेे, यश में हर जगह ढूंढा जाता है।
सुख दूसरे से ही प्राप्त होगा, यह वह मानता है, और दुख ?
इस सवाल पर वह सोचता ही नही है।
यह जो दूसरा है। जो संसार है, क्या कभी उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर पाता है ?
और सच तो यह है कि यह जो दूसरा है। हमेशा कल में ही आता है। दूसरा, जो है, जीवेषणा में है। कामना में है।
उसका आकर्षण यही है कि उसके आधार पर भविष्य की आशा शेष है।
इसीलिए मनुष्य भगवान को अपने से अलग मानता है, उनसे कुछ मांगता है और इसी तरह वह इस आशा में जीवित रहता है कि वह जो दूसरा है, उसे आज नहीं तो कल सुख ही देगा।
जहां मनुष्य अपने स्वरूप को छोड़कर, अपने स्वभाव से अनभिज्ञ रहकर दूसरे से जुड़ता है, वहीं वह दुख पाता है। यह जो दूसरा है, उसका कभी नहीं हुआ। क्योंकि वह उसका है ही नहीं। उसकी इससे नित्य दूरी है। इसलिए इस दूसरे के लिए, जो संसार है, शरीर है, धन है, परिवार है, सुख की लालसा बनी हुई है। वह कभी पूरी होगी कि नहीं ? मनुष्य उसे ही पा सकता है, जो कि उसका है। सदा से उसका  रहा है।हां, आज भले ही उसकी विस्मृति हो गई हो।
लेकिन होता यह नहीं है, मनुष्य जो उसका है, जो वह है, उसे छोड़कर जो उसे कभी प्राप्त नहीं होने वाला है, निरन्तर परिवर्तनशील है, उसे चाहता है और जब वह उसे नहीं मिलता है, तब वह दुखी होता है। विक्षोभ जग जाता है। दुख का कारण है- अपने को छोड़कर, पराये सुख की खोज करना।
जो स्वभाव है, उसे भूलकर जो नहीं है, उसमें डूबना।
जब तक स्वयं की समझ नहीं होती। दुख के कारण ही तलाश नहीं होती। तब तक यह दूसरा ही महत्वपूर्ण रहता है।
यही विडम्बना है।
दुख दुखी के उद्धार के लिए आता है। उसकी समझ को जाग्रत करता है। पर वह लोलुपता के अधीन होकर सुख की तलाश में भटकता रहता है।
इसीलिए दुख और उसका प्रभाव आदर के योग्य है। यही प्रभाव अपनी तीव्रता में ‘जो है’ उसके प्रति ध्यान दिलाता है। जब वह पाता है कि संसार उसकी आवश्यकता की पूर्ति में सहायक नही है तभी वह अन्वेषी बनता है। खोजी होता है।
‘जो’ अब तक विस्मृति में था, उसकी स्मृति ही जिज्ञासा जगा देती है। जिज्ञासा जगते ही विवेक का आदर होता है। विवेक था, अभी भी जीवन में था, पर बुद्धि का आदर था। विवेक तिरस्कृत था। विवेक का आदर होते ही, अविवेक छूटता है। विवेक ‘जो’ है, उसके प्रति आदर भाव तथा जो नहीं है, उसके प्रति अनादर भाव का भाव जगाता है। आदर का भाव ज्यों-ज्यों दृढ़ होता जाता है, आचरण में स्वाभाविक परिवर्तन आता है। जिसे छूटना है, वह छूटना शुरू हो जाता है। अविवेक से ही बुरे भाव और बुरे कर्म होते हैं। विवेक के जाग्रत होते ही, जो कुछ श्रेष्ठ है,वह आचरण में आने लगता है। साधन प्रारम्भ हो जाता है। साधन कहीं बाहर नहीं अपने पास ही है।
अपनी आवश्यकताओं को समझा जाए। मन का आगे पीछे का चिन्तन ही बाधक है, जो स्मृतियों तथा आकांक्षाओं में डूबा रहता है। यही अविवेक है। यही विक्षोभ का कारण है। इसीलिए आवश्यक है कि पहले निज के विक्षोभ को समझा जाए। जब तक विक्षोभ की समझ नही होगी, तब तक बाहर आने का सार्थक प्रयास भी नहीं हो सकता।
वह सोचता है कि जो दुख दूर कर देगा। जीवन भर भौतिक वस्तुओं की अप्राप्ति ही दुख बन जाती है। वस्तुओं की दासता और उनकी अप्राप्ति दुख का बहुत बड़ा कारण हो जाती है। वह वस्तुओं से अपने आपको बाहर ला नहीं पाता। वह उनकी प्राप्ति के लिए छटपटाता रहता है। यह प्राप्ति ओस कणों से प्यास बुझाने की तरह है। उसकी सांसारिक भूख उसी तरह आजीवन कायम रहती है। कभी-कभी अवसर आता है, विवेक कौंध जाता है। उसे लगता है कि कामनाओं की पूर्ति से प्राप्त तुष्टि क्षणिक है। हर कामना पूरी भी नहीं होती। अतृप्त कामनाएं असंख्य रहती हैं। अपूर्ति से विक्षोभ दुख का अनवरत प्रवाह कायम रहता है।
कभी कभी विवेक का आदर जब साधक करता है, तो व्याकुलता बढ़ती है। जिज्ञासा बढ़ती है। वह अविवेक को समझ जाता है, समझ बढ़ते ही वह साधन यात्रा पर बढ़ जाता है। अन्यथा वह पुनः विवेक का अनादर करते ही सांसारिक प्रवाह मे डूबता चला जाता है।
कामना निवृत्ति ही शांति में प्रवेश कराती है।
यहां सरोवर की लहरें शांत हैं। तली स्पष्ट दिखाई देने लगती है। चित्त दर्पण है। पक्षी उड़ा तो लगा, वह यह दिखा। जब तक वह उड़ता रहा, बिम्ब रहा। जाते ही जल, फिर वही दर्पण का दर्पण !
यही तो प्रशांत मन है।
जो है उसी पर ध्यान केन्द्रित रहे, यही साधन है। जो निरन्तर बदलता रहा है, वही गलत है। वह स्वरूप नहीं है। उससे छूटते ही स्वरूप उपलब्ध होता है। जो भी बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं। यह शरीर जो मुझे मिला है, क्या मैं हूं ? यह संसार जो बदल रहा है, क्या मैं हूं ? शरीर मन और संसार सब बदल रहे हैं। संसार मन का ही तो विस्तार है। जगत और शरीर प्रतिरूप ही हैं। जो निरन्तर बदल रहा है, वह सत्य नहीं है। जो असत्य है उसी पर ही तो ध्यान है। उसी का ही चिन्तन है। उसी की ही खोज है। उससे ध्यान हटाना ही ध्यान है। वह तो है, उस पर जब ध्यान पहुंचता है, तभी स्वरूप उपलब्ध होता है। तभी स्थिरता प्राप्त होती है।
इसीलिए ध्यान जो है उसके अवलोकन की कला है। यह शरीर जिस इन्द्रिय के द्वारा यह कार्य कर पाता है वह मन है। तभी तो सारा बह्माण्ड इसी से हलचल लेता हुआ दिखाई पड़ता है। मन की गति असाधारण है, कहा जाता है कि प्रकाश की गति भी उसके सामने कुछ नहीं है। इसीलिए ध्यान आन्तरिक अवलोकन ही कहा गया है। प्रायः ध्यान का अर्थ मानसिक एकाग्रता के लिए लिया जाता है। मन के द्वारा किसी यन्त्र रूप या नाम के प्रति सजगता पूर्वक रखी गई एकाग्रता ही आजकल ध्यान कही जाती है। यह याद रखिए ध्यान, एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता मन की बहिर्मुख वृत्तियों को किसी नाम, रूप या मन्त्र पर केन्द्रित करने का अभ्यास ही है। परन्तु एकाग्रता को ही साधना-यात्रा स्वीकारने से साधक, साधन पथ को ही छोड़ बैठता है।
हमारे संकल्प से निश्चित की गई, यह देव प्रतिमा, यह मन्त्र, यह नाम, फिर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि मन उससे छूट नहीं पाता, और जो होना चाहिए था, वह नहीं हो पाता है। चित्त पुनःऔर अशांत हो जाता है। अप्रमाद के स्थान पर प्रमाद पुनः उपस्थित हो जाता है।
”ध्यान” एकाग्रता नही है।
ध्यान सतर्कता सहित आंतरिक विचारणा का अवलोकन है। हम जो भीतर हैं, वही वास्तव है। उस वास्तव की सही-सही विश्वसनीय पहचान ही ध्यान प्रक्रिया है। हम जो है, एक स्थिर इकाई नही हैं। हर क्षण हम बदल रहे हैं। जो चीज बदल रही है, वह हमारी आंतरिकता नहीं है।
मन के संकल्प-विकल्प की अनवरत श्रंखला है। इसी श्रंखला, इसी विचारणा का सतर्कतापूर्वक किया गया अवलोकन ही ध्यान है।
अवलोकन दूसरे शब्दों में मात्र देखना।
बाहर नहीं भीतर देखना है। देखते समय ईमानदारी यही रखनी है कि किसी प्रकार का कोई पूर्वाग्रह नही ंरखना है। बनी बनायी पूर्व निर्धारित को क्या देखना। जो बात तय कर ली जाय, जैसे कोई नाम, कोई रूप, उसका अवलोकन ध्यान नहीं है। यहां जो लहरें उठ रही हैं, उन्हें बिना किसी तिरस्कार के, बिना किसी चश्में के देखना है, यहां पर सम्पूर्ण विचारणा को उसके वास्तविक रूप में देखने का प्रयास है।
यह अवलोकन ही क्रमशः स्थिरता प्रदान करता है।र्
िस्थरता ही साधना का लक्ष्य है।
मन का आगे पीछे का चिन्तन ही बेहोशी है। यह वर्तमान से पलायन है। यह नींद है।
सच है, हम जागते हुए भी सोए रहते हैं। कोई पूछे तो हमें लगता है, हम कहीं और थे। यही विवशता असाधन है। इसका त्याग होते ही साधन स्वयं प्राप्त हो जाता है। यह साधन अगर साधक में पर्याप्त धैर्य रहा तो अवश्य ही साध्य से मिलायेगा।
मन की गति असाधारण है। क्षणभर मे ही न जाने कहां से कितनी बातें आ जाती हैं। चित्र ही चित्र ! न जाने कितने युगों से हम चित्र ही चित्र सहेजते आ रहे हैं। ये ही स्मृतियां हैं, जिन्हें हम मन मान बैठे हैं। मन जब इनके साथ सहयोग करता है, तो ये गाढ़ी हो जाती हैं। मूलधन ब्याज कमा लेता है।
मन अगर स्मृतियों के साथ असहयोग करे तो मूलधन ही खर्च होना शुरू हो जाता है।
यही हमें करना है।
यहां न कुछ अच्छा है,न बुरा।
अन्यथा हम सही रूप को जान ही नहीं पायेंगे। जो कुछ है, भीतर है। अंधेरी बावड़ी में रखा हुआ है। उसे बाहर तो आने दें। जहां अस्वीकार किया, वहीं ध्यान ध्यान नहीं रहा। प्रायः अपने भीतर के गंदलाए जल को देखकर हम चौंक जाते हैं। और अस्वीकार करने लग जाते हैं। या उससे बचकर ईश्वर के किसी रूप या नाम में डूबने लगते हैं। यह क्या है, यह तो पागलपन है। परमात्मा का मार्ग कायरता का मार्ग नहीं है। यह अज्ञान है। यहां हमारी जागरूकता यही है कि हमारी उपस्थिति बनी रहे, जहां हम हैं, हाजरी रहे।
छात्र कक्षा मे आते है। पर जरा पूछो तो लगता है- यहां थे ही कहां, कहीं और थे। गायब।
”ध्यान” गायब होने का नाम नही, साक्षत अनुभवन है। जो कुछ है,विश्वसनीय साक्षात्कार यहां है।
यही ध्यान उस विराट आनन्द स्रोत से हमें जोड़ देता है, जो हमारा साध्य है। इसीलिए ध्यान मात्र प्रक्रिया ही नहीं है। हर प्रकार की क्रिया का यहां अन्त भी है।
यहां सब प्रकार के बंधन छूट जाते हैं। ज्ञान की अग्नि उठते ही अज्ञानरूपी कूड़ा कचरा जलकर राख हो जाता है। बंधन वे पाश जिनसे हमने अपने आप को बांध रखा है, टूट जाते हैं। संसार के प्रति उमड़ती हुई कामनाओं के बादलों के हटते सी शेष रह जाता है, खुला आकाश, निरभ्र और शांत, जहां फिर कोई अभाव नहीं।
अगर हमारे पास थोड़ा सा अवकाश हो, और हम अपने आपको सामने रखकर देखें तो पाऐंगे, हमारे भीतर जो आकांक्षाएं हैं, वे दो विभिन्न रास्तों पर चलना चाहती हैं। ज्वार सा उमड़ता है।
यही वह द्वन्द है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है। भोगेच्छा और भगवदेच्छा भोगेच्छा संसार की ओर ले जाती है, यह सांसारिक सुख को ही जीवन की उपलब्धि मानती है।
दूसरी ओर इस सुख-दुख के झंझावात से उठकर फिर शांति की ओर बढ़ने की इच्छा उमड़ती है। वही भगवद् इच्छा है, जो मनुष्य को सांसारिक जगत में व्याकुल बनाये रखती है।
शास्त्रों में इसे ही ”योगमाया” कहा जाता है। यही मोक्ष अभिलाषा है, यही साधन यात्रा में साधक के मन में प्रयत्न उपस्थित करती है।
साधन यात्रा संसार से पलायन नही है।
यह संसार के प्रति सभी संबंधों की तलाश है।
यहां जो प्रयत्न है, वह उस समझ पर आधारित है, जो उसे आभ्यान्तरिक  प्रश्न के लिए प्रेरित करती है। वह अधूरापन जो उसे हर समय अशान्त रखता है- उसे दूर करने का है। इसलिए यहा व्यक्त्तिव का सम्पूर्ण रूपांतरण है। यहां आभ्यन्तर तथा बाहृा जीवन का एक ऐसा परिवर्तन है कि यहां देह परमात्म भाव के साथ ही परमात्म कर्म की साधन बन जाती है। इसीलिए साधन यात्रा की उपलब्धि सांसारिक देहात्म भाव से ऊपर उठकर आत्मानुभव ही नहीं, बल्कि साथ ही उस परमात्म भाव को जीवन तक भी ले जाना है।
आज के मनुष्य के सामने उसका अशांत मन ही कष्टकर है। वह पाता है कि अपने समस्त भौतिक प्रयत्नों के बाद भी वह विक्षोभ से बाहर नहीं निकल पाता है, वह इसी विक्षोभ को दूर करने के लिए कभी जगत में पूरी तरह बैठना चाहता है तो कभी इससे दूर कहीं और भागना चाहता है। मन जो बीमार है, अशांत है, एक पल को भी तो स्थिर नही रह पाता है। कभी अतीत में तो कभी भविष्य में दौड़ता ही रहता है। कितनी हिंसा भरी है। कितना गंदलाया जल है। सदा अपने को छोड़ परायी खिड़की में झांकता ही रहता है। क्योंकि वही तो इसका रस है। जब तक इसे संसार की समझ नहीं होती, तब तक मन का अपना जो स्वरूप है, वहां लौटना असम्भव है।
यह जो विक्षोभ है, उसका जनक यह संसार, और उसकी ओर ले जाने वाली आकांक्षाएं हैं। यही हम जान पाए है। अभिलाषा ही कारण है जो कार्य में परिणत होती हैं। ज्यों-ज्यों हम निम्न प्रकृति से मुक्त होने लगते हैं, त्यों-त्यों हम भगवतकृपा के हकदार बनते चले जाते हैं।साथ ही, जितनी भगवत्कृपा हम पर होगी उतनी ही निम्न प्रकृति की शुद्ध होेती रहेगी यह साधारण नियम है। इसीलिए बहिर्जगत में छोड़ने और छूटने के प्रति यहां अत्यधिक आग्रह नहीं है। जो कुछ छूटना है स्वतः ही होता जायेगा। जब हम इस यात्रा पर बढ़ेंगे। छोड़ता और ग्रहण करता मन ही है। मन का छोड़ा ही छूटा है और मन का ग्रहण किया चिपटाता है।
चित्त शुद्धि और भगवत् कृपा का पारस्परिक संबंध है। जितनी अधिक स्थिरता हम प्राप्त करते जाते हैं, उतनी ही  अधिक भगवत कृपा हम प्राप्त करते हैं। यही साधना यात्रा है। इच्छा रूप ही संसार है और इच्छा निवृत्ति ही मोक्ष है। यही विक्षोभ का अन्त है। और प्राप्ति है- उस विराट शांति की, जिसके लिए हम इस अन्तर्यात्रा पर गतिशील हैं।
यह स्थिति जीवन और जगत से पलायन नही है। यहां जिसमें, जिस संसार की उपस्थिति है, उसका अभाव तो है, परन्तु अब जगत के प्रति जो अब तक संबंध था, वह भी तो परिवर्तित है।
यही वह स्थिति है, जहां साधक जीवन और जगत के प्रति सही संबंध स्थापित कर पाता है। आसक्ति के स्थान पर अनासक्ति, भोगेच्छा के स्थान पर भगवत इच्छा ! तभी तो कर्म का स्वरूप ही बदल जाता है।
यहां जगत के प्रति त्याग और सेवा ही शेष रह जाती है। ये शब्द मात्र शाब्दिक नहीं रह जाते हैं, वरन आचरण में स्वतः ही आ जाते हैं। यही तो भगवत्कर्म है, जो साधक को साधन यात्रा प्रदान करता है। यह स्थिति पलायन नही है। वरन जीवन की सही स्वीकृति है। जीवन कुशलता से जीने के लिए है और योग उसकी श्रेष्ठ कला है। अभिलाषाओं से सन्यास ही तो विक्षोभ का अन्त हे। यही तो मोक्ष है।
इसलिए हमें इसी जीवन में भगवत कृपा प्राप्त करनी है। और साथ ही इस शरीर में भगवत्कर्म से युक्त करना है।
अशांत मनुष्य के लिए उसका मन ही भार है। वह अनुकूलता की तलाश में इधर से उधर भटकता रहता है। उसका अशांत मन, कामनाओं की पूर्ति के लिए भटकता फिरता है।
प्रतिकूलताएं जहां उसे दुख देती हैं, वहीं अनुकूलताएं उसे गुलाम बनाती हैं। यही कारण है कि वह स्थिर नहीं रह पाता है। इसीलिए स्थूल देह की अपेक्षा मन जो है, वही महत्वपूर्ण है। इस मन का नियमन ही  महत्वपूर्ण है।
इसीलिए अवलोकन के अलावा दूसरा कोई प्रयत्न नही है। इसी से ही विक्षोभ का अन्त संभव है। सच तो यह है कि अभिलाषाओं का ही नाम चित्त है। जब यह सांसारिक पदार्थों की इच्छा से रहित हो जाता है, तभी संकल्प त्याग संभव है। जो कुछ भी अतीत है, वहां मात्र स्मृतियां हैं। जन्म-जन्म के संस्कार हैं।
स्थिरता के लिए वांछनीय है-इन स्मृतियों का असहयोग। साधक को स्मृति मात्र से ही असहयोग सफलता देगा। मन का बार बार स्मृतियों में जाना तनाव ही लाता है। सच तो यह है कि स्मृति ही पाप है।
जो कुछ भी अतीत का संग्रहित है वह अशुभ ही अधिक है। सुखद है। यह वर्तमान पर अपनी काली छाया छोड़ता है। सच तो यह है कि हम स्मृतियों को ही ध्यान मान बैठे है। जमा की गई पूंजी ! जब तक यह ताला बन्द है मन का शांत भाव में आना असम्भव है।
हर साधक प्रयोगशाला है। उसे चाहिए अनन्त धैर्य, अनन्त प्रतीक्षा, साधन के प्रति गहरा विश्वास ! जब तक विश्वास नहीं होगा- सफलता नहीं मिलेगी।
स्पष्ट है, ध्यान सजगतापूर्वक किया गया आंतरिक अवलोकन है। निरन्तर सजगतापूर्वक की गई मन की यह निगरानी स्थिरता अवश्य देगी। यहां कोई दबाव नहीं है। वरन् जो कुछ है वह सहज है। यहां किसी प्रकार का बाहृा-आरोपण नही है। नहीं, नया कुछ सीखना है। वरन जो जरूरी है, उसको ही छोड़ना है- इसी से ‘जो’ है उस स्वरुप का ज्ञान हो जाता है।
जरूरी नहीं है- आज जो मौन मिला है, वह दीर्घ हो। हो सकता है- क्षणिक हो।
आज होश कम रहा, नींद अधिक रही, पश्चाताप नहीं करना है। पुनः यात्रा पर गतिशील रहना है। टुकड़े टुकड़े जोड़ते हुए कभी तो सम्पूर्ण पाया जा सकता है। इतना धैर्य अवश्य रखना है।
प्रायः ध्यान को हमने अपने जीवन से अलग कोई निश्चित अभ्यास मान लिया है। जो आरोपित है। जिसके लिए परिवार, तथा समाज से महत्ता प्राप्त होना आवश्यक है। यह विचारणा अनुचित है।
ध्यान तो ‘जो’ जरूरी नही है उसका छूटना है। असाधन का त्याग ही- साधन है। ध्यान, सहज और साधक की आवश्यकताओं के अनुरूप है, उसके लिए प्रिय और मंगलकारी है।
जहां भी रहें, जब भी रहें, यह सतर्कता बनी रहें। हम वहीं रहें, उसी क्षण में रहें।
स्मृतियों तथा आकांक्षाओं से जाना ही होश खोना है। नींद में जाना है, वर्तमान से पलायन है। सजगता बनी रहे। जागरूकता रहे। हर पल, हर क्षण हमारी, हमारे कर्म में मौजूदगी रहे। इसीलिए साधन, साधक के लिए जिन्दगी से पलायन नहीं है। वरन जिंदगी को सुचारू रूप से जीने की कला है।

साधन सन्दर्भ
स्वामीजी से प्रायः जिज्ञासु जब भी मिलते हैं, वे क्या करें ? यही पूछते रहते हैं। वे साधना की ओर किस तरह बढ़ें, यही जिज्ञासा रहती है।
स्वामीजी कहा करते है-
”साधक के लिए आत्मनिरीक्षण ही साधन है। साधक को चाहिए कि  वह अपनी आंतरिक्ता में विचरण करे। मनोजगत में पैठ करे। आप वहीं पहुंचेंगे, जहां से विचार चले आ रहे हैं। एक गहरी सतर्कता के साथ की गई आंतरिकता में निगरानी मन को क्रमशः निष्क्रियता प्रदान करती है। मन से, मन की  जब निगरानी की जाती है, तब वह जल्दी ही थक जाता है। और एक खालीपन निष्क्रियता प्राप्त होती है। परन्तु यहां पर किसी ओर अन्य प्रकार के परिवर्तन की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। हम गुण और दोष को ही जीवन मान बैठे हैं। जीवन जो है, जिस रूप में है। उसके मूल रूप को जान ही  नहीं पाते।”
प्रायः आत्मनिरीक्षण के साथ ही परिवर्तन की ललक रहती है। अरे मुझमें यह दोष है...यह मुझे दूर करना है, तभी गुण का स्वरूप सामने आ जाता है, मुझे तो यह होना चाहिए, आखिर यह भी तो संकल्प यात्रा ही है। जब तक गुण शेष है, तभी तक दोष की सत्ता भी विद्यमान है। राग द्वेष की समाप्ति ही सही वैराग्य है। हमें और कुछ नया नहीं करना- बस, इसी  तकनीक को समझना है कि यहां कुछ होने के लिए आत्मनिरीक्षण नही करना है। बाहृा से लाकर कुछ आरोपित नहीं करना है, जो है उसका सतर्कतापूर्वक अवलोकन ही साधन है। यहां किसी प्रकार का कोई ंसंकल्प नही है, रूपान्तरण की चाहत भी नहीं है तभी तो ‘जो’ है वह उसी रूप में अभिव्यक्त हो सकता है। जब ध्यान में रुपान्तरण की क्रिया शुरू हो जाती है। तभी तनाव शुरू होता है। एक द्वन्द यह ध्यान नहीं है। इसीलिए आवश्यक है, आत्मनिरीक्षण की नौका पर मात्र लहरें ही देखना है, गिनना नही है। पानी के गंदलेपन को देखकर अस्वीकृति की भावना नही, जो है, उसे ही साक्षी भाव से देखना है, यह नाव चलती रहे, तभी यह अन्तर्यात्रा संभव है। यहां निसंकल्प अवलोकन ही सार्थक ध्यान है। आंतरिक विचारणा का अवलोकन ही यह हमें प्रदान करता है।
इसलिए आवश्यक है कि काल के इस अमूल्य क्षण में मन अत्यधिक संवेदनशील हो, और यह तभी संभव है कि विचारणा ही नही रहे। जिस क्षण यह अनुभवन है, अनुभव और अनुभव-कर्ता की पृथकता समाप्त हो जाती है। पर होता क्या है, अनुभव क्षणिक रहता है। फिर आती है स्मृति जो सार्थक क्षण का विश्लेषण करती है। अनुभव और अनुभव कर्ता पृथक हो जाते हैं। इसलिए हम पाते है, हम अधिकांशतः अनुभव से बाहर ही रहते हैं। अनुभव के लिए आवश्यक है, इस क्षण विचारणा अनुपस्थित रहे, भूत और भविष्य में मन का संक्रमण न रहे, रहे मात्र वर्तमान और तभी प्राप्त होती है, निसंकल्पता, एक गहरा मौन, यही तो हमारा ध्येय है।
ध्यान-योेग हर क्षण के अनुभव में रूपांतरित होने की वह कला है जिसके द्वारा जगत भागवत-भाव की प्राप्ति होती है, वहीं जीवन भागवत-कर्म से युक्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों अनुभवन बढ़ता है, जीवन की सार्थकता उपलब्ध होती जाती है।
यह स्थिति जीवन से पलायन नही है, निठल्लापन नही है, वहां है- सर्वाधिक गत्यात्मकता, खुला विक्षोभहीन जीवन क्या यही हम नहीं चाहते हैं?
यह सच है, यहां तक साधारण साधक के लिए पहुंचना सरल नही है। अतः अभ्यास आवश्यक है। शास्त्रों ने इसीलिए भगवत इच्छा का आदर किया है। भगवत इच्छा ही प्राणी की भोगेच्छा को समाप्त कर देती है। और अन्त में जाकर यह भी परमात्मा में विलीन हो जाती  है। अतः प्रयत्न यहां निन्दनीय नहीं है। सच तो यह है कि प्रयत्न ही यही है।
इसलिए साधक को अभ्यास का आदर करना चाहिए, उन विचारों को, जो किसी काम के नही है, उन्हें तो न आने दें। बिना काम के विचार वे ही हैं, जो कभी वर्तमान में नही रहने देते। हमेशा मन को भूत और भविष्य में ले जाते हैं। यही तो चिन्ता है जो कि चित्त भी है।
इसीलिए आवश्यक है कि गहरी सतर्कता रहे। यह सतर्कता और कहीं नहीं, अन्तर्जगत में हमेशा रहे। याद रखिए मन गत्यात्मक है। उसकी गति असाधारण है, इसीलिए जहां आप चूके, मन एक क्षण में लाखों मील की दूरी लाँघ जाता है। और जहां सतर्कता पूर्वक अवलोकन हुआ, वह नियंत्रित होता चला जाता है। सतर्कता की इस अवधि को बढ़ाइये, जितनी यह अवधि बढ़ती चली जाएगी, उतनी ही गहरी शांति में आप अपने आपको पाते चले जाऐगे।
सच तो यह है, यहां पानी पर उठने वाली लहर को ही एकाग्र करना लक्ष्य नही है, हम चाहते हैं- उसको बर्फ बनाना, जिससे कि फिर कभी कोई लहर ही नही बने। यह स्थिति मानसिक एकाग्रता ही नही है। एकाग्रता के लिए कम से कम एक संकल्प तो चाहिए ही, और नहीं अब तक अन्य स्थानों पर परिभाषित किया ध्यान ही है। यहां ध्यान योग हमे, कुविचार से हटाते हुए उस संकल्प-हीनता को सौंपता है, जहां मात्र आत्मानुभव है और भगवत्कर्म है, यही हमारा ध्येय है।
साधक कहते हैं-
दुख है जीवन में दुख ही दुख है। हम उससे अपने आपको हटाना भी चाहते हैं पर संभव नही है। वे दुख के प्रभाव को संसार की सहायता से दूर करना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि जब तक सुख की सत्ता है, तभी तक दुख है। पर जाने कैसा भटकाव है ? प्राणी दुख भोगता हुआ भी सुख की भूल- भुलैया में इतना उलझा रहता है कि वह छोड़ते हुए भी  छोड़ नहीं पाता है और अगर प्रयास भी करता है तो उसका यह प्रयास किन्हीं सिद्धियों की तलाश में, हठयोग में, या सुख की कामना में ही यह सोचते हुए कि उसके संकल्पों की पूर्ति किसी अन्य की कृपा से संभव है, गुरूडम के भटकाव में भटक जाता है।
नहीं, हमें इसी जीवन में अभ्यास सत्संग द्वारा ध्येय पाना ही है। ध्यानयोग ही सहज और सुगम वह मार्ग है, जो सन्तों का साध्य पथ रहा है।
इसीलिए आवश्यक है, अगर अपूर्णता है, और उसे पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है, तो प्रयत्न आज से और अभी से किया जाए।
पहला कदम
जरूरी नहीं कि एक ही दिन में, एक ही क्षण में चमत्कार हो जाय। योग मार्ग पिपीलिका-मार्ग है। चींटी का मार्ग, जिस प्रकार मधु की तलाश में अनवरत लगी हुई वह दुर्गम से दुर्गम जगह पहुच जाती है, वही भाव साधक के मन मेें होना चाहिए कम से कम दिन में दो बार तो कुछ समय हमें अपने अभ्यास के लिए देना ही चाहिए सोते समय और सुबह नींद खुलते समय।
बैठ नहीं सके तो लेटे ही रहें। देखे मन क्या कर रहा है ? सतर्कता से आंतरिक विचारणा का अवलोकन करें, न जाने कितने विचार आ रहे हैं, पर आप तो विश्राम में हैं और मन दोपहरी में गया, इस कल से उस कल में गया, समझाइए अभी तो विश्राम में हूं। मन को वर्तमान में लाइए। यही प्रयत्न है, शुरू-शुरू में मन नहीं मानेगा, फिर ज्यो-ज्यों अभ्यास बढ़ता जायेगा, वह नियंत्रित होता चला जायेगा। साधक कहेंगे, इससे तुरन्त नींद आ जाती है। नींद आती है तो आने दीजिए, यह बाधक नही है।
सुबह उठते ही इस अभ्यास को दोहराइए। आंतरिक विचारणा का अवलोकन कीजिए। मन जो वा´छा कर रहा है उसे देखिए। बिना किसी पूर्वाग्रह के। और रूपांतर की कामना छोड़िए। जो है, उसी रूप में कुछ क्षण देखने का प्रयास कीजिए। मन ही, मन की निगरानी कर जब थक जाता है तो अशांति स्वतः कम होने लगती है। एक गहरी शांति का अनुभव ही सार्थक उपासना है।
दूसरा कदम
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का गहरा संबंध है। मन इसी कारण से भोगों में लिप्त रहता है। ध्यान के लिए यही श्रेष्ठ है कि किसी बाहृा नाम, रूप पर मन को स्थिर करने के स्थान पर आंतरिक ब्रहृानाद पर ही मन को स्थिर किया जाय। मन जब ठहरता है, तब अन्तर्जगत से आती हुई ये ध्वनियां साधक को सुनाई देती हैं। संतो ने इनके कई रूप बतलाये हैं, ज्यो-ज्यों मन ठहरता जाता है यह नाद एक स्पष्ट अनवरत सायरन की आवाज सा शेष रह जाता है। साधक को चाहिए कि वह कहीं भी रहे, कुछ भी करता रहे, मन वहीं लगा रहना चाहिए। श्रवण और वाणी का गहरा संबंध है।
इसीलिए साधन यात्रा में जिस कर्मेन्द्रिय पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए, वह वाणी ही है।
तीसरा कदम:-
साधन पथ पर सबसे अधिक फिसलने वाली चीज ”जीभ” है। स्वाद की परिधि में भी तथा वाचालता की परिधि में भी। सभी इन्द्रियों का दमन सरल है। पर इस रसना का नियंत्रण कठिन ही है। क्योंकि इसके दो कार्य है, जब वह बाहर आती है, तब शब्दों से खिलवाड़ करती है, दोष-दर्शन में लग जाती है या पर- निंदा या चाटुकारिता मे। साथ ही स्वाद के लिए मन को इधर उधर दौड़ाए रखती है। जब यह एक साथ दो काम करती है, तब उसका दुरूपयोग घातक ही है।
नाद श्रवण पर मन की एकाग्रता से वाक संयम सरलता से बढ़ जाता है। क्योंकि श्रवण और वाक् का गहरा संबंध है। जो गूंगा होता है, वह बहरा भी होता है।
फिर भी साधक को चाहिए, वह इसके नियन्त्रण पर ध्यान दे। गपशप अस्थिर मन की परिचायक है। जब हम अपने आपसे बचना चाहते हैं, तभी दूसरों को अपने सामने उपस्थित करते हैं। जब तक दोष दर्शन और पर-निंदा उवाच जारी है, हम अपने भीतर की सीढ़ियों पर उतर नहीं सकते। दूसरों के बारे में जानने की यह जिज्ञासा हमें आत्मानुसन्धान से रोक देती है। जितना हम बाहर भटकते हैं, उतनी ही हमारी आंतरिकता हमसे दूर होती चली जाती है। बाहर जो कुछ है, परिवर्तनशील है, उत्तेजनात्मक है और यह उत्तेजना मन को अस्थिरता ही प्रदान करती है। इसीलिए संयम अगर करना है तो वाक-संयम ही करना है।
अन्त में
स्मृतियों से असहयोग तथा जीवेषणा की पहचान ही साधक को सही समझ सौंपती है।
अशुद्ध और अनचाहे संकल्पों के परित्याग से आवश्यक संकल्पों की पूर्ति अपने आप होने लगती है।
यह वह स्थिति है, जब सक्रियता अचानक बढ़ जाती है। साधक पाता है कि उसके भीतर असाधारण शक्ति आ गई है। वह जिस किसी भी कार्य को करना चाहता है, वह पूर्ण ही होता है। प्रमाद, जो कल तक संगी था- कहीं दूर चला गया है।
साथ ही ”अशुद्ध संकल्प” जो पर-निन्दा तथा पर-अहित में थे, उनके जाते ही मनोनिग्रह हो जाता है।
साधक निर्दोष होने के लिए प्रयत्नशील है। कर्त्तव्य- परायणता बढ़ती है। उसमें स्वतः ही उदारता, मुदिता, प्रेम प्रकट होता है।
प्रेम आंतरिक है।
साधक पाता है कि उसका ह्नदय अब तक जो अनावश्यक विचारों के बोझ से तनाव से भरा हुआ था, खाली हो गया है। वह गहरी शान्ति का अनुभव करता है। साथ ही जगत के प्रति जो संबंध थे, वे भी बदल रहे हैं। साधन यात्रा की पहली पहचान आचरण परिवर्तन है। आचरण में त्याग और सेवा की भावना बढ़ती है।
वह कर्त्तव्य कर्म से जुड़ता है।
कर्त्तव्य कर्म से जुड़ते ही अनावश्यक संकल्प जो भूत और भविष्य में घूमते रहते हैं स्वतः ही कम होने लगते हैं।
व्यर्थ ही जो समय जा रहा था, कम होने लगता है वहीं पर साधक में परिवर्तन आता है। उसकी आंतरिकता घनी होते ही उसमें कलात्मकता आ जाती है।
और भी आगे, अगर साधन-यात्रा निरन्तर गतिशील रहे तो साधक पाता है कि ज्यों-ज्यों संकल्पों की संख्या कम होती है, संकल्प निवृत्ति से प्राप्त शांति सघन होती जाती है।
सधन प्रशांत मन वह पाता है। जो छूटना था, वह स्वतः छूटता चला जा रहा है। जो पाना था, वह स्वतः प्राप्त हो रहा है।
साधन यात्रा में यह पड़ाव ही है।
इसमें रहते हुए और आगे बढ़ना है।
बिरले ही साधक होते हैं, जो यहां आकर रूकते नही हैं। अन्यथा यहां आकर प्राप्त शांति का उपभोग शुरू हो जाता है। पंथ बनने लगते हैं।
सद्गुरू की कृपा, उनकी शरण, प्रभु प्राप्ति की अनन्त जिज्ञासा ही साधक को आगे ले जाती है।
आगे, और आगे, जो साधन यात्रा का पड़ाव है।
”जो” है स्वरूप की प्राप्ति उसकी अभिन्नता है। इस बारे में कुछ कहा नही जा सकता। यह अनुभव का जगत है। अनुभव जब विचारणा के क्षेत्र में आता है, तब भाषा भी उसे प्रकट करने में असमर्थता पाती है। जहां मात्र अनुभवन है, वहां फिर प्रकट करने की आकांक्षा ही नहीं है।
यह हर साधक का अधिकार है। स्वतन्त्रता हर साधक का जन्म सिद्ध अधिकार है। वह यहां आकर स्वाधीनता प्राप्त करता है।
साधन-यात्रा का प्रयोगात्मक है। एक गहरा प्रयोग। यहां प्रारम्भ तो दिखता है, पर अन्त नहीं। इसलिए अनन्त धैर्य और अगाध जिज्ञासा का होना ही साधक के लिए पहली आवश्यकता है।

सार्थकता की खोज
कल रात हम लौट रहे थे, यही सवाल बार-बार उठ रहा था कि जीवन का उद्देश्य क्या है, आखिर हम पैदा ही क्यों हुए हैं ? जब जगत ही असार है, फिर  इस जगत के साथ हमारा संबंध क्या है ?
स्वामीजी से जब चर्चा में यह सवाल उठा, वे यही कहते हैं कि वर्तमान में रहो, उत्तर स्चयं तुम्हारे पास आ जायेगा। पर व्यवहार में कैसे रहा जाए। और जीवन की सार्थकता को किस प्रकार पाया जाए, प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं।
उस दिन चर्चा में वे बोले- जो भी व्यक्ति तुम्हारे पास आता है, उसके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना मत रखो, कोई प्रतिबद्धता नही। कोई पूर्वाग्रह नहीं। यही त्याग है। जो भी  दुराग्रह है, बनी बनायी धारणा है, उसको छोड़ देना ही त्याग है। वह बुराई उसमें नहीं है। तुम अपने भीतर की बुराई को उस पर प्रक्षेपित कर रहे हो। तुम अपने भीतर का गंदलापन उसके अन्तर्जगत पर फैक रहे हो। शांत हो जाओ। निश्छल मन से स्वागत करो। यही त्याग है।
छोड़ना और छूटना यहां नहीं है। यही छूटना है। बाहृा में जो कुछ भी परिवर्तन होगा, वह अर्थहीन है। जब बल समाप्त होगा, फिरकनी फिर रूक जाएगी। उससे भीतर बदलाव नहीं आता। वह भीतर से नहीं जुड़ता। कुछ किया जाना हो, कुछ होना भी हो, तो वह भीतर से ही होगा।
अतः जब भी कोई व्यक्ति सामने आए....परिस्थिति सामने आए उसके बारे में कभी पूर्व धारणा मत रखो। पूर्व में धारणा का आधार स्मृति है और स्मृति ही पाप है। बार बार विषयों के चिन्तन से वासना, स्मृति-रुप धारण कर लेती है। और फिर स्मृति जब भी किसी की उपस्थिति होती है, अवधारणा प्रस्तुत करती हे। हमारा सारा व्यवहार उसी धारणा के आधार पर होता है। यही जीवन की जटिलता है।
हम अपने भीतर इतना कचरा समेटे हुए हैं कि वह चाहते हुए भी नहीं छूटता। हम वर्तमान में रहना ही नहीं जानते। चाहते भी नही हैं। हमारा सारा कार्य, व्यवहार स्मृति से परिचालित है। यही तनाव का कारण है। यही विक्षोभ का कारण है। व्यक्ति को हम, व्यक्ति रूप में नहीं, स्त्री हरिजन, मुसलमान महाजन, अफसर नाना रूपों में देखते हैं। हर रंग, रुप,व्यवसाय जाति के प्रति हमारे पास अपनी धारणाएं है। हम उन्हीं सांचो में उसे देखते हैं, रखते हैं, और खुद समस्या खड़ी करते हैं।
स्वामीजी कहा करते है, ‘हम अपने तटस्थ भाव से, साक्षी भाव से जीने का प्रयास ही नहीं करते हैं।’
साक्षी भाव ‘होने’ की कला है।
आप अन्तःकरण की पवित्रता चाहते हैं। जीवन में निर्मलता चाहते हैं, पवित्रता चाहते हैं, शांति चाहते हैं। पर अपनी बनी, बनायी अवधारणाओं को छोड़ नहीं पाते।
अगर छोड़ना ही है तो इस अवधारणा को छोड़ना होगा जिसने हमें रुग्ण मानसिकता दी है।
यही त्याग है।
तब वह व्यक्ति, वह परिस्थिति अपने सहज रूप में सामने आएगी। वह वर्तमान में उपस्थिति देगी, और अपने आपको भी वर्तमान में रहने में सहायता देगी।
चित्त की सरलता सहज ही प्राप्त हो जाएगी। अन्तःकरण में पवित्रता प्राप्त होती जाएगी।
त्याग वस्तु का नही है। न ही वस्त्र का। न ही भोजन का। न ही स्त्री, सन्तान, घर द्वार का है।
जिसने छोड़ा उसने क्या पाया है ?
धर्म की, कर्मकाण्ड की यही जटिलता है। वह उलझा अधिक रहा है। वह छोड़ने पर अधिक बल देता है। छूटने पर कम।
जो बलात छोड़ा जाता है, क्या वह छूट पाता है ?
बार-बार लौट-लौट कर आता है।
बहुत पुरानी कहानी स्वामी सुनाया करते हैं-
राजा जनक के दरबार में ऋषि आत्म-ज्ञान की चर्चा करने गए थे। चर्चा चल रही थी। तभी सेवक ने आकर कहा- नगर के पश्चिमी छोर पर आग लग गई है। चर्चा चलती रही। जनक ने आग बुझाने का आदेश दिया। कुछ देर बाद फिर सूचना आई-आग आगे बढ़ती जा रही है। काबू में नहीं आ रही है। जनक आदेश भिजवाते रहे। तभी सूचना आई- आग अतिथिशाला तक आ पहुंची है। तभी ऋषि विचलित हुए, उठने लगे। जनक ने पूछा- क्यों ? बोले ”कमण्डल वहीं रह गया है।” जनक बोले मेरा तो राज्य जा रहा है, आपको अपने कमण्डल की पड़ी है।
ऋषि, जो संसार छोड़ आए थे, कमण्डल नहीं छोड़ पाए।
स्वामीजी कई बार कहते हैं, उनसे लोगों ने पूछा शराब छोड़ दें, सिगरेट छोड़ दें, मांसाहार छोड़ दें, आदि-आदि। तब उनका उत्तर यही रहता है, तुम अपना काम करते रहो, जिसे छूटना है वह अपने आप छूट जाएगा।
तुम्हारा काम अन्तर्मुखी होकर मन की निश्चलता को प्राप्त करना है, अन्तर्मन को जीवन का कार्य व्यवहार सौंप देना है। वर्तमान में जीना सीखो। स्वभाव स्मृति में हैं, आदत स्मृति में है, वर्तमान में रहने का अभ्यास होते ही स्वतः छूट जाएगी, पेड़ के पत्ते कब गिरते हैं, उसे अहसास भी नहीं होता, जिसे छूटना है, वह छूट जाएगा, कुछ पता भी नहीं चलेगा।
क्रिया साक्षी-भाव है। जो व्यक्ति उपस्थित हुआ है। परमात्मा ने ही उसे तुम्हारे पास भेजा है। कल वह क्या था, कोई मतलब नही। कल उसने क्या किया था याद रखना व्यर्थ है। आज अभी जब वह आया है, साक्षी भाव से साक्षात्कार करो, तुम खुद पाओगे, वह तुम्हें बदला हुआ मिलेगा। वह ही तुम्हें वर्तमान में रहना सिखला पाएगा।
यही त्याग है।
त्याग सेवा सौंप जाता है।
सेवा की नहीं जाती, हो जाती है। यह मनोदशा प्राप्त होते ही-जो शरीर का कार्य है, वह सेवा कहलाती है।
सभी सेवा की चर्चा करते हैं। तथाकथित सेवा अंहकार ही सोंपती है। मन को जटिलता देती है। साक्षी भाव मे देह का कृत्य ही सेवामय हो जाता है। शरीर का कर्म ही सेवामय हो जाना, साधना का रहस्य है। प्रतिफल है।
और तब जीवन में जग उठता है प्रेम। मन में त्याग, शरीर सेवामय, सम्पूर्ण जीवन प्रेममय हो जाता है। यह सिद्धि है, यही निर्वाण है, यही मोक्ष है। यही साक्षात्कार है। प्रेम दूसरे को खींचता है। यहां आकर्षण है। वह आकर्षित करता है। पर अब यह जान लिया जाता है कि दुरूपयोग नहीं करना है, वरन दूसरे के मनोजगत में यही भाव उपस्थित करने का प्रयास करना है। आकर्षण जो ग्रह नक्षत्रों में था, वह शरीर में आ जाता है। यहां लोहा सोना नहीं होता, वरन पारस दूसरे को पारस बनाने लग जाता है। जो खुद जागता है, दूसरे को जगाता है।
स्वामीजी कहते हैं- दूसरे के चित्त मंे यही मनोभाव जागृत स्वतः होने लग जाते हैं, वसुधैव कुटुम्बकम ओढ़ा नहीं जाता, पाया जाता है, हुआ जाता है। यही मानव धर्म है।
यही जीवन की सार्थकता है।
जाति -पांति, स्त्री-पुरूष, काला-गोरा, अमीर-गरीब, सब मनुष्य के बनाये भेद है।
इसके ऊपर उठकर सहज मानव होकर जीने की कला ही साधना है।
साधना अमूर्त, अकल्पनीय स्थितियों की प्राप्ति का नाम नहीं, अनन्त प्रसन्नता युक्त सुखी शांत जीवन जीने की कला का ही नाम है।

क्या छोड़ा क्या पाया ?
स्वामीजी कहा करते हैं कि मैंने आज तक किसी को अपना शिष्य नही बनाया, न ही कोई पंथ चलाया, न ही कोई गद्दी बनायी, न ही भण्डारा किया। लोग आते हैं, वे कहते हैं दुनियां से थक गये, दुख ही दुख, घर-बार छोड़ना चाहते हैं, कुछ छोड़ आये हैं, धर्म की शरण में जाना चाहते हैं। कुछ कहने हैं- वे हरिद्वार हो आये, तीर्थयात्रा कर आये। कुछ कहते हैं- संन्यास लेना चाहते हैं, उनको दीक्षा की जरूरत है। और जब मैं उन्हें कहता हूं कि छोड़ने की जरूरत नहीं है, जिसे छोड़ना है, वह तुम्हारे पास है, जो तुमसे चिपटा हुआ है। वह जब तुम चाहोगे, स्वतःछूट जाएगा। चाहना तुम्हारी है, छूटना उसको है तो वे निराश हो जाते है।
स्वामीजी कहा करते हैं कि बहुत पहले, जब उन्होंने सन्यास लिया था, और एक गुरूकुल शुरू किया था, तब लोग आते थे कहा करते थे, गांवों में हम तुम्हारा प्रचार करेंगे, लोगो के शिष्य बनने से तुम्हें जो आमदनी होगी आधा-आधा बांट लेंगे। स्वामीजी कहा करते हैं। न तो तब किसी को शिष्य बनाया और न अब। जब मैं किसी से कहता तो वे नाराज हो उठते थे। और यही सुनने में आता था, हम तुम्हारा विरोध करेंगे- और लोगों से कहेंगे, तुम कुछ नहीं जानते। तो यह सब ऐसे ही चलता रहता है।
छोड़ना क्या है, यह लोग समझ नहीं पाते हैं। जब मैं कहता हूं, अन्तर्मुखी हो जाओ, वर्तमान में रहने का अभ्यास करों। जो छूटना है, स्वतः छूट जायेगा। बाहर छोड़ने पकड़ने के चक्कर में मत पड़ो।
बाहर जो भी किया जा रहा है, हो रहा है- उसका भीतर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कितने ही रंग के कपड़े पहन लो, घर छोड़कर जंगल में चले जाओ- माया तो भीतर है, वह कहां पीछा छोड़ेगी ? वह साथ ही तो चल रही है।
स्वामीजी ने कभी भी दमन को साधन नहीं बनाया। और यही कारण है कि जब भी कोई उन्हें मिलता है तो वह तथाकथित संन्यास धारण की परिधि मे उन्हें समझ नहीं पाता। दरअसल हजारों साल से धर्म के नाम पर जो अनुशासन सौपा गया, उसने मनुष्य को इतना जड़ बना दिया है कि वह सहज हो ही नहीं पाता। मनुष्य चेतना और पदार्थ का समवाय है। और शरीर जो प्राप्त हुआ है, उसकी स्वतन्त्रता अपने आप में कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसीलिए जब मनुष्य के विकास की चर्चा होती है या दूसरी और मनुष्य के स्वरूप की खोज की जाती है तो जो चीज है-अपने सामने आती है, वह उसका शरीर ही है। बाहर और भीतर जो कुछ भी घट रहा है वह शरीर के धरातल पर ही है। बाहर की बाहृा घटनाओं की प्रतिक्रिया इन्द्रियों के माध्यम से भीतर पहुंचती है। और भीतर जो कुछ भी हो रहा है, वह इसी शरीर के माध्यम से बाहर व्यक्त होता है। इसीलिये भीतर तक पहुंचने के लिए वह माना गया कि शरीर को नियंत्रण में लेना आवश्यक है। दरअसल यह एक भ्रान्ति है। और जब तक इस भ्रान्ति को नहीं समझा जाए तब तक भीतर तक प्रवेश संभव नहीं होगा। प्रकृति का यह नियम है कि बाहृा में कितना भी बड़ा परिवर्तन किया जाये, वह तभी तक कारगर होगा, जब तक कि उस पर बल लगा हुआ है। ज्यों ही बल हटाया जायेगा, वह क्रिया अपने आप समाप्त हो जायेगी। यही कारण है कि बाहृा में जो परिवर्तन होता है और हम जिसे स्वभाव मान बैठते है। वह क्षणिक उत्तेजना पाकर ही टूट जाता है। यह स्थिति तथाकथित जो भी बाहृा अनुशासन को, दमन को इस साधना मार्ग पर जो आरोपित करते हैं, स्वीकार करते हैं, उनके साथ घटती रहती है।
प्रायः लोग चर्चा करते हैं और कहते हैं कि अगर मनुष्य अपने शरीर के प्रति जागरुक हो जाता है, सजग हो जाता है तो वह जान जाता है, इस शरीर के बारे में जो संवेग बिन्दु हैं, जहां पर कि शक्तियों के स्रोत हैं और जिनके माध्यम से वृत्तियां प्रकट होती हैं, और अगर हम यह जान पाये तो हम इन वृत्तियों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगे और नाड़ी संस्थान पर प्रभुत्व स्थापित करने के बाद हम भीतर के आवेग, संवेग और व्यवहार पर नियंत्रण पाने में समर्थ हो जायेंगे। इस आधार पर यम, नियम, आसन और प्राणायाम की आधार शिला रखी गई हैं। यह जो विधि है, यह दमन की है। और यह मान लिया गया है कि दमन के द्वारा जो निषेध का मार्ग है, वह धार्मिक यंत्र में बहुत सहयोगी है। इसी आधार पर हजारांे साल से गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास की स्थापना की गयी। और इसी रुप में धार्मिक यन्त्र के लिये सम्पूर्ण जगत को अस्वीकार किया गया, पर वास्तविकत्ता यह है कि हम यह नहीं मानते कि शरीर की जितनी निंदा की जाय, शरीर की जितनी चर्चा की जाय, शरीर रहेगा, और शरीर की अपने आप की सत्ता नही है, जो कुछ भी घटता है, वह भीतर घटता है। और जब तक भीतर की पहचान नही होगी, तब तक यह पता नही चलता कि बाहर क्यों सब कुछ घट रहा है। हम ये मान कर चलते हैं कि काया के नियंत्रण से चित्त वृत्तियों का शोधन हो जायेगा। यह मानते चले आ रहे हैं और हमारे शास्त्र भी यही कहते हैं। हजारों साल से हजारों आदमी यही कहते चलें आ रहे हैं, लेकिन शरीर के इस अत्यधिक नियंत्रण से जो प्राप्तव्य है, मन की शांति स्थिरता, सृजनशील मन जहां प्रसन्नता है, क्या वह प्राप्त हो सकता है ?
यह कहा जाता है कि जो नाड़ी संस्थान है, वह मन का अनुचर नही है। संवेग प्राप्त होकर नाड़ी संस्थान में प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, और वहां मन कुछ कर नहीं पाता है, तब तक शरीर उत्तेजना में चला जाता है और वह सबकुछ घट जाता है, जो कि नहीं घटना चाहिए था। लेकिन अगर किसी संवेग को, किसी वृत्ति का निरीक्षण किया जाये और गहराई में जाकर स्पष्ट रूप से पाया जाय तो वहां ऐसा कुछ नही है।
स्वामीजी कहा करते हैं कि प्रकृति के द्वारा उठने वाली लहरें नाभि से गति लेकर जहां चित्त है, वहां ये निरन्तर धक्का दे रही है और यह स्पंदन चित्त पर आकर अधिक स्थूल रूप धारण कर लेता है, यही विचार का जन्म है। और ये लहरें ऊपर उठकर स्नायुओं द्वारा शरीर में व्याप्त हो जाती हैं, और शरीर बाहृा व्यवहार कर उठता है। जब तक उठने वाली लहर का जागरूक अवलोकन न हो, एक अवांछनीय सजगता न हो, तब तक व्यवहार के कारण की अन्वीक्षा नही हो सकती।
इसीलिये इस मार्ग पर जहां से प्रारम्भ होता है, वह बाहर नही भीतर की ओर जाना है। स्वामीजी कहा करते है कि अन्तर्मुखी हो जाओ, जो छूटना है, स्वतः छूट जायेगा, तो छोड़ने और पकड़ने की रूचि नहीं रहे।
लोग कहते हैं कि मै तो खामोश बैठा था, कुछ कहना भी नहीं चाहता था, पर ऐसा कुछ हुआ, ऐसा शब्द आया कि मैं अपने वश में नहीं रहा और क्रोध में जो कुछ मैं नहीं कहना चाहता था, वह सब निकल गया। अघटित, घटित हो गया। यहीं आकर कहा जाता है कि मन का वाणी पर कोई नियंत्रण है तो ऐसा नहीं कहा जाता। लेकिन यह बात गहराई से सोचें और वह जो प्रक्रिया देह पर घटी है, वाक यन्त्र पर घटी है, यहीं से प्रारम्भ करें और भीतर की ओर चलें, डुबकी लगायें संवेग के साथ तो पता चलता है न अच्छा, न बुरा, मात्र साक्षी ध्यान को पायेंगे, उस क्षण एक धक्का सा लगेगा। एक लहर सी आयी और समाप्त हो गयी थी। यह लहर अहर्निश आ रही है और मन इन लहरों पर तैरते हुए तिनको की तरह है। और जब साक्षी ध्यान बढ़ जाता है तो अचानक वह घट जाता है, जो अकल्पनीय है। जो छूटना था, वह तो स्वतः छूट जाता है, यह पता भी नहीं चलता कि कब छूट गया। इसीलिये छोड़ने और छूटने की अधिक चिन्ता यहां नहीं करनी है। बस करना, इतना ही है, जो भीतर का सागर है, वहीं बस, एक डुबकी लगानी है। अपने आपको बस छोड़ देना है। बिना किसी सहारे के, बिना किसी आलम्बन के, बिना किसी आश्रय के, चेतना सागर में लगायी हुई एक डुबकी वह सब छुड़ा देती है, जिसे छुड़ाना है।

जीवन भाष्य
साधकों से हुई बात-चीत के अंश
आदतें और स्वभाव, उठने वाली वृत्ति को पहचान देते हैं, जिससे जीवन की पहचान मिलती है।
संस्कारों में यह चीज तो बीज रूप में रहेगी ही। अच्छी मिठाई भी खाते आ रहे हैं। लेकिन मिठाई के प्रति हमारी रुचि नहीं है। परन्तु मिठाई खाते आ रहे हैं, इसलिए उसका भी संस्कार है, पर जिससे लहरें उठती है, संस्कारों में से वृत्तियां वासनाएं जागृत करने में वह समान रूप से संस्कारों के भण्डार से टकराती है।
हमारी चाय पीने की आदत है।
चाय और मिठाई सामने आयी तो चाय पीने की वृत्ति जल्दी जागृत होगी, परन्तु मिठाई की जागृत्ति होकर भी उतनी नही होगी। परिणाम यह होगा कि चाय के लिए हाथ पहले बढ़ेगा, मिठाई के लिए नहीं। वृत्ति अपना स्वरूप स्वयं उजागर कर देती है।
इस प्रकार जितने भोग भोग चुके हैं, उनके संस्कार रुपी बीज अन्दर हैं। पर यह सामुदायिक लहर जो उठती है। प्रकृति की वह एक व्यक्ति की नहीं, मानव मात्र की होती है, टकराते ही अंदर हलचल मचती है।
वृत्तियां उफान खाकर ऊपर आ जाती है।
इन्दिरा गांधी की मृत्यु से लहर उठी है। कोई शंात रह गए... कोई विचलित हुए, कोई उफान खाऐंगे। लहर तो एक ही है। चारों तरफ से उठी है। कर्म एक ही हुआ है। परन्तु प्रतिक्रिया अलग-अलग। जो जितना निकट है, उसकी अनुभूति उतनी ही गहरी होगी।
इसी तरह से यही संस्कार है। हमने जीवन मंे जो जो भोगा है, अनुभव किया है या जिन-जिन वस्तुओं के प्रति आकर्षण रहा है, वही संस्कार रूप में, बीज रूप में उपस्थित होता है। प्रकृति उसमें वृत्तियां जागृत करके इस शरीर और इन्द्रियो द्वारा करने को प्रेरित करती है।
केवल संस्कार
मृत्यु के बाद संस्कार शेष रह जाता है। संस्कारों का भण्डार अन्तर्मन में रहता है। उसका ही एक हिस्सा इन्द्रियां और मन हैं। यही एक शरीर छोड़कर जाता है। जिस शरीर में वह जाता है, वहीं प्राण की गति प्रारम्भ हो जाती है। बीच में कुछ नहीं रहता है। बीज रूप में यही संस्कार रहता है।
इस जीवन में अगर वर्तमान में रहने का अभ्यास किया तो अन्दर उसमें संस्कार नहीं बनते। संस्कारों के अनुकूल ही वह जहां जहां देख लेते हैं कि वासनाओं की पूर्ति होनी सहायक होती है, उस परिस्थिति में परिवार में जन्म हो जाता है।
प्रश्न: संस्कार मृत्यु के बाद कहां रह जाते है ?
उत्तर: कहां रह जाते हैं, कुछ कहा नही जा सकता। यहा इस जीवन में कम से कम एक कमरा, मकान, गली, शहर की कल्पना तो है। हमारी जितनी कल्पनाएं हैं, शरीर के साथ हैं। मन के साथ हैं। इसके बाद कुछ नहीं। वह स्वप्न सब कहां चला जाता है। इसका भी अस्त्तिव तब तक है, जब तक शरीर और मन है। यहां से जाने के बाद यह भी गायब हो जाएगा। बड़ी विचित्रता है। कहंा जाते हैं, कोई वस्तु तो है नहीं।
परन्तु प्रकृति के द्वारा एक वह संस्कारों का बीज तो है, जिसे प्रकृति ने पैदा किया है।
”एकोऽहं बहुस्यामि” जैसे एक चीज से हजारों रूप हो जाते है। यह विलीन हो जाते है। नाटक करने से लिए अपने आप पैदा हो जाते हैं। वापिस चले जाते हैं। वैसे बीच के समय में यह संस्कार रूपी बीज नाटक करने के लिए उसमे ऐसे पड जाते हैं, जो सब नाटक अपने साथ करते जाते हैं, बनते जाते है, बिगड़ते जाते हैं, सार कुछ नहीं।
जीवात्मा का स्वरूप
मृत्यु के बाद वो जो निकल जाता है, उसमें वासनाएं होती हैं, संस्कार उसका एक छोटा सा पुन्ज, उसे जीवात्मा कहते है।
ये सब पैदा हुए हैं, जब से सृष्टि उत्पन्न हुई है।
‘एकोऽहं बहुस्याम।’
स्वप्न में हम लेटते हैं। सोने के लिए अपन अकेले होेते हैं। और वहां भी वेदान्त कहता है, इसमें आया है- स्वप्न क्यों पैदा होते हैं ? जब लेटा-लेटा व्यक्ति अपने आपको अकेला महसूस करता है तो वह घबड़ा जाता है। क्योंकि वह अकेले में रहने का आदी नहीं है। और जब भय से कि वह अकेला है, यह भावना पैदा होती है तो बहुस्याम की भावना पैदा हो जाती है। उसमें स्वप्न सृष्टि पैदा हो जाती है।
जो स्वप्न सृष्टि बनने के लिए प्रक्रिया है। अनेक व्यक्ति नजर आने चाहिए, अपने आप आ जाते हैं, इसी प्रकार यहां तो अलग-अलग संस्कार है। इच्छायें हैं, जो पुनःवहां से निकल जाता है। क्योंकि वह अलग अलग जीवात्मा तो है ही, वह जीवात्मा जिसमें जितनी अधिक शक्ति होगी। इसमें ऐसे भी बहुत से व्यक्ति होतेे हैं, जो कड़ी साधना के बाद शरीर छोड़कर जाते हैं, जिनको हमने विद्वान माना है, उनका अपना प्रकाश रहता है, तेज होता है, पर यहां चाहे सौ में अट्ठानवें टका तरक्की करलो, एक दो भी कमी रह गई तो प्रकृति के लिए यह काफी है, नीचे खींच देने के लिए। वह वापिस खींच लेती है।
वहां तो जो सौ टका हुआ, वही पास हो सकता है, पूरा ही पकना होता है। हां, जो भी किया है, उसका लाभ तो मिलेगा। परन्तु जब तक शुद्ध सोना नही है, तब तक उसको चक्कर काटने पड़ेंगे। प्रकृति उसे हटाएगी। जब तक वह सौ टन्च सोना हो जायेगा। उसे अपने हर जन्म की तब स्मृति रहेगी।
समान स्वभाव वाले लोग इकट्ठे हो जाते हैं, वहां भी ऐसा होता होगा। पहले इच्छा हुई थी, जीवात्मा कहां रहती है, तब दिखा, जैसे जुगनू होते हैं, पांच सात झुण्ड में बड़ा प्रकाश होता है। तरह तरह से वो इधर-उधर आते जाते हैं। दिखा कई बार कई दिनों तक दिखता रहा। इच्छा न रहते हुए भी दिखता रहा। पर मन वहां भी नहीं लगा। विचारधारा शुरू हो गई, फिर मन ने कहा छोड़ो, तो छूट गई। इसी प्रकार दिखाया। फिर नहीं दिखा। अब उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। जिज्ञासा भी नहीं रही। जहां जो इच्छा होगी, जानने की, वह भी एक संस्कार बना देगी। वह भी खतरनाक होगी। जितना बचा जाए, उतना ही अच्छा।
जीवनमुक्त अवस्था
साध्य इसीलिए यही है। जीवनमुक्त अवस्था में यही होता है कि हमे हमारे शरीर मे रहते हुए शरीर से अलग अनुभव करते हुए हमारी इन्द्रियां हमारे शरीर में किस प्रकार काम करती हैं, इसका निरीक्षण करना है। यह करना हमने प्रारम्भ कर दिया तो संस्कार उठना कम हो जाता है। लहरें उठने की क्रिया धीरे-धीरे कम होती जाती है। संस्कारों में वासनाएं उत्पन्न करने की क्षमता कम हो जाती है। ये जो लहरें उठती रहती हैं, प्रति क्षण फिर ये प्रभावित नहीं करती। यही सार है।

कर्म
साधकांे से हुई बातचीत के आधार पर
योग मात्र शारीरिक क्रिया प्रक्रिया का सामन्जस्य ही नही है, वरन योग सम्पूर्णता पाने की प्रक्रिया है। जो पूर्ण है, जहां किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है। अभाव ही विक्षोभ का जनक है। वही दुख है। प्रत्येक प्राणी में किसी न किसी प्रकार की कोई न कोई कमी रहती है। कमी प्रकृति जन्य है। विषमता प्रकृति का स्वरूप ही है। आकांक्षा से गति उत्पन्न होती है, गति इस विषमता को हलचल देती है। एक स्फुरणा, पूर्णता की ओर बढ़ने की ललक, यही विकास यात्रा है। हम निरन्तर सम्भावना में है, रूपान्तरण में हैं, अपने आप को बदलने की प्रक्रिया में हैं।
यही कर्म का स्वभाव है। कर्म उस तरंग की स्वाभाविक गति है, जो चित्त सरोवर में उठी है। स्फुरणा क्यों ? क्या मात्र इसलिए ही नहीं कि वहां मात्र उद्वेलन ही है। सरोवर में आने वाली हर लहर एक छाप छोड़ जाती है। फिर उसी छाप पर, उसी  प्रभाव पर दूसरी लहर लाती है।यही तो संकल्पों का सिलसिला है, कारण है- संस्कार ! संस्कार ही वह छाप है, जहां नाभि से आने वाले स्पन्दन तरंग उत्पन्न करते हैं। इस तरह यन्त्र जो कि स्वचालित है, चलता रहता है। लहर उठती है, गिरती है, छाप बनती है, उस पर पुनःलहर उठती है। यह छाप ही वह संस्कर है जो कि संकल्पों की जनक है। हर संकल्प जो जितना गहरा होता है, उतना ही कर्म में ढल जाता है और कर्म की परिस्थिति भोग में होती है। भोगावस्था में वह तरंग पुनः टूटती है और उसका प्रभाव शेष रह जाता है। उस प्रभाव से पुनःतरंग उठती है।
यह एक लंबा सिलसिला है।
प्रश्न उठता है, फिर इस सिलसिले को योग में कैसे परिणित किया जाये ? योग-सम्पूर्ण रूपान्तरण ! अभाव का ही अभाव ! मात्र पूर्णता। यहां हैं गहरी शांति हार्दिकता तथा प्रेम।
शरीर मात्र जड़ ही नहीं है, वह परम चेतन्य के साथ जुड़कर चेतन तथा जड़ के साथ जुड़कर जड़वत हो जाता है। वह जड़ और चेतन का समवाय है, जो अद्भुत है, इसलिए ही रूपान्तरण संभव है। इस शरीर का सम्पूर्ण समर्पण ही साधक के लिए श्रेयस्कर है। साधक कहते हैं कि वे ध्यान करते हैं कुछ कहते हैं जाप करते हैं, कुछ कीर्तन करते हैं, एक-एक इन्द्रिय को लेकर वे संयमित हो रहे है। वाणी जाप करती है, तब मन बाजार घूम आता है। हाथ से सुमिरिनी फिरती है, तब कान पड़ौस का बाजा सुनता है। घण्टे भर मौन रहे, पर आसन से उठते ही क्रोध से आग बबूला हो उठे हैं। इतना गुस्सा, यह कैसा योग हैं ? योग- जुड़ना। परम सत्य में लय भाव। यह मात्र एकांकी नही है, वरन यहां जुड़ना सम्पूर्ण है। टोटल....कुछ भी बाकी नहीं रखना। अपने आपको पूरा दे देना। चौबीस घंटे दे देना। तब जो कर्म है, वह भगवद कर्म में ढल जाता है।
यह कर्म कब संभव हो ?
प्रश्न उठ खड़ा होता है, यह कैसे संभव हो ? हम जो कुछ करते हैं, क्या वह सार्थक कर्म नही है? हां उत्तर सम्भवतः यही है। सार्थक कर्म पूर्णता देता है, जब कि निरर्थक कर्म मात्र अभाव और असंतोष सौंपता है। निरर्थक कर्म जन्म लेता है उन बातों से जो आज की नही है। आगे और पीछे का जो व्यर्थ का चिन्तन है, उसमें हम डूबे रहते है। वह इस प्रभाव का चित्त सरोवर पर सौंपता है, जिससे विक्षोभ जन्य लहरें उत्पन्न होती हैं, जहां मात्र अभाव ही है।
अतः आवश्यक है कि पहले निरर्थक कर्म से सार्थक कर्म की और बढ़ा जावे जो प्रकृति जन्य है, वही सहज है।
वही स्वाभाविक है। वह अपने आप पूरा हो जाता है। निरर्थक कर्म होता है, मन-तन के आगे और पीछे के चिन्तन में डूबने से। मन को जितना इससे हटाया जाकर वर्तमान में लाया जायेगा। उतना ही मन अपनी स्वाभाविक स्थिति में होगा।और मन जितनी शांत अवस्था में होगा, उतनी ही सक्रियता बढ़ेगी। साथ ही, उतनी ही सृजनात्मकता रहेगी। कर्म, सार्थकता पाएगा। कर्म, सार्थकता तभी पाता है, जब वह कर्म दुबारा न किया जावे यह भावना पूरी हो जावे। यही कर्म का रहस्य है। अन्यथा कर्म का भोग शेष रह जाता है। कर्म की स्वाभाविक परिणति लय है और जब कर्म मुक्ति का कारण बन जाता है, तब वही योेग कहलाता है, अन्यथा कर्म की परिणति भोग में ही होती है।
कर्म भी साधन ही है। इसके स्वरूप को समझे बिना बचने का उपाय नही है। यह जगत, कर्म के ही ताने-बाने से बना हुआ है। अतः जगत से बाहर जाना तो संभव नही है। करोड़ो में कोई बिरला बाहर आ सकता है, परन्तु अपने भीतर से जगत को बाहर कर सकता है। जगत में रहते हुए भीतर के जगत से छुटकारा ! यही साध्य है। जगत आगे और पीछे के व्यर्थ के चिन्तन में उपस्थित रहता है वह तरंग पैदा करता है। जो कर्म को उपस्थित कर भोगों में बदल देती है।
अतः कर्मयोग का रहस्य यही है। कर्म का योग में रूपान्तरण ही साध्य रहे। चित्त सरोवर मे आने वाली हर लहर पर ध्यान रहे। उसका साक्षी भाव से निरीक्षण। निरर्थकता से बचा जाये। तभी गंदलाया जल स्थिर होना शुरू हो जाता है। और पारदर्शी तली उपस्थिति देती है।
यह स्थिति मात्र जड़ हो जाना नही है, वरन यह है- सम्पूर्ण सृजनात्मकता का अवतरण, टोटल रिवोल्यूशन सम्पूर्ण परिवर्तन दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण योग। यहां मात्र क्रिया का अन्त नही है, परन्तु क्रिया का सहज और स्वाभाविक रूपान्तरण है।
इसकी साधक में पहचान है, हार्दिकता और आचरण में निस्वार्थता।
कर्मयोग, साधक को अदभुत क्रिया शक्ति से जोड़ता है, जिसकी परिणति होती है, त्याग और सेवा में। उसका हर क्षण प्रकृति जन्य होने लगता है। जिससे प्रकृति से साधक की सम्प्रत्ति गहरी होने लगती है।
व्यक्तित्व की संरचना
प्रश्न यह माना जाता है कि शरीर जड़ और चेतन दोनो का समवाय है, शरीर में चेतना का प्रकाश कहां होता है, तथा चेतना किस प्रकार कार्य करती है इस सन्दर्भ में विवाद है। क्या मन, चित्त और आत्मा के बीच में भी अन्य किसी प्रकार के स्तर है।
स्वामी जी यह तो वही बता सकता है, जिसने सवाल खड़ा किया है। किताबों में पढ़ा होगा। प्रश्न अगर मन से आया है तो उत्तर उसी के पास होगा, उत्तर उसी से पूछा जाए मिल जायेगा। रमण महर्षि ने प्रश्न यही उठाया था और इसी की तलाश में रहे।
प्रकृति की लहरें अनवरत उठ रही हैं। ये नाभि में उठती हैं। नाभि में विकारों के बीज हैं। वे बीज सूक्ष्म हैं। वहां मात्र स्पंदन है। वे धीरे धीरे उफनते जाते हैं, जैसे लहरें सभी के अन्दर उठ रही है, किसी को जल्दी उत्तेजित करती हैं, किसी को कम। यह व्यक्ति की बनावट, बुनावट पर निर्भर रहता है।
जैसे कुछ लोग सो रहे हैं, कोई आकर आवाज देता है तो कोई एक आवाज पर, कोई दो आवाज पर, कोई चार आवाज पर उठ जाता है, और कोई होता है, उस पर असर ही नही होता- वह सोता रह जाता है। आवाज देने वाला एक ही होता है। संस्कार सूक्ष्म बीज रूप में हैं, लहरें टकरायी, टकराते टकराते कोई उफन जाता है, किसी पर कोई असर नही होता। यह उसी प्रकार से है कहीं बच्चों ! आवाज लगते ही उठ जाता है, कोई सोया रहता है। वासना जागृत ही नहीं होती।
लहरें अनवरत उठ रही हैं धीरे-धीरे यह अनुभव हो जाता है कि प्रकृति का कार्य यही है। हमें तो सहन करना है। सहन करने के लिए अपने स्थान पर स्थिर होकर रहना है।
चेतन्य केन्द्र आत्मा है या यूं कहिए, वहां अवेयरनेस है वह है, उसका अनुभव हो जाता है, उसके सबसे समीप अन्तर्मन ही है, मनोविज्ञान की भाषा में इसे अनकांशस कहा जा सकता है। यहां जानने का माध्यम कोई है नहीं, इन्द्रियों की पहुंच यहां तक नहीं है। यहां तक स्थूल शरीर की पहुंच नही रहती है। यह उसके परे की बात है, अभ्यास यही करना है कि नाभि से उठ रहे स्पंदनों को, जो चित्त पर आकर टकराते हैं तथा वहां स्थूलता ग्रहण करते हैं, और वासनाएं जन्म लेती है, उस उफान को उस संवेग को, उस लहर को, उस तरंग को उस भाव दशा को गहरी जागरूकता के साथ, सतर्कता के साथ साक्षी भाव से अवलोकित करना है।
इसी अन्तर्मन से स्पंदन आगे बढ़ते हैं, वे स्थूल शरीर से अभिव्यक्त होते हैं। नाभि से उठने वाले स्पंदन चित्त पर आकर टकरा कर स्थूलता ग्रहण करते हैं। यहां आकर भाव- दशा शरीर के माध्यम से प्रकट होने लगती है। यहां आकर वासनाएं आकर ग्रहण करती हैं, स्पंदन तरंगों का रूप ग्रहण कर लेते हैं, वासनाएं विषयों के लिए लालायित रहती हैं, उन्हें पोषण मिल जाता हैं, अगर वर्तमान में रहने का अभ्यास बढ़ जाता है तो वे ऊपर की ओर उठती जाती हैं, पर उन्हें फैलने के लिए जगह नहीं मिलती स्वभाव में बदलाव व्यवहार की श्रेष्ठता अनुकरण से नहीं सीखी जाती। यदि हमारा क्रोधी स्वभाव है और उसकी हमें प्रतीती भी है, तो वर्तमान में रहने का अभ्यास होेने के बाद लहर जो उठी है, वह अनुभव होगी और लहर जिस प्रकार पत्थर पर टकरा कर वापिस लौट जाती है, वैसे ही मालूम होगा। टकराई व लौट गई, अन्तर्मुखी होेने के बाद वृत्तियां उठते हुए भी पनपती नही है। और धीरे-धीरे बिल्कुल ही नहीं होती।
इसीलिए कहा है, स्वभाव बाद की स्थिति है। इसीलिए स्वभाव का पता तब तक नही चलता, जब तक क्रिया नहीं होती। आप चुप हैं, मौन हैं, पर बोलते ही शब्द बाहर आते ही जब क्रिया होती है, स्वभाव का पता चल जाता है। वर्तमान में रहने वाले का स्वभाव समझ में नही आता है, क्योंकि वहां प्रतिक्रिया नही होगी। न भूत है, न भविष्य, न कल्पना है, न अतीत से संग्रहित कोई व्याख्या है। क्योंकि बाह्य, मन अनुपस्थित है। उसका काम होता है-स्मृति करना, कल्पना करना, चिन्तन करना, संग्रहित करना, रिकार्ड रूम नहीं रहा तब न अतीत रहा न भविष्य रहा, मात्र क्रिया, कोई प्रतिक्रिया नहीं। स्वभाव सहज, साधारण बन जाता है। हां, यह भी नहीं होता कि निठल्लापन होता है, या पलायन। हां, अत्यधिक सृजनशीलता, और चित्त की नमनीयता वहीं संभव है। सवेंदनशीलता यही प्राप्त होती है। जो भी कार्य प्रकृति को करना है, वह कराती जायेगी, तथा कार्य स्वतः होता जायेगा।
मैं इतनी देर से चुप बैठा था, आपने प्रश्न पूछा मैं बोला। नही तो चुप रहता हूं। प्रश्न पूछा है तो क्रिया होती है। नहीं तो व्यवहार कुशलता नही रही। हम सब भीतर से जुड़े हुए हैं। व्यवहार ही सबके प्रति सही होना चाहिए। यहां इतने लोग आते हैं, पर आवश्यक नहीं है, बोला जावे। पर कोई प्रश्न पूछता है, तब उत्तर आ जाता है, अन्यथा मौन, व्यवहार का सही तरीका यही है। अन्तर्मुखी होने पर कर्म स्वतः प्रकृति जन्य हो जाता है, वहीं यह पहचान होती है।
इसीलिए वह बात गहराई से समझने की है कि हमें इस प्रक्रिया के प्रति जागृत होना है। जागरुकता की सबसे बड़ी यही जरूरत है। हम हजारों साल से शरीर के प्रति अत्यधिक सजग हैं। सारे शास्त्र यहीं आकर रूक गये हैं, जो आगे बढ़े वे भी काल भय से हमें छोड़ नहीं पाये। बुद्ध जब बोले, तब तो शरीर से इतना लड़ चुके थे कि उनकी बात को भी स्वीकारते हुए जो उन्होंने करके छोड़ दिया था, वह भी उनके अनुयायी मानते गये। लोग कहते हैं कि मन, जो क्रिया-तन्त्र है, वाक है, शरीर के इस पर नियंत्रण कर ले, और चित्त से उठने वाली तरंगों के प्रति असहयोग रखें तो साधना की ओर तेजी से बढ़ेंगे। यह सबसे बड़ा खतरा है।
उपशमन, नियमन, नियंत्रण फिर उल्टी तरफ चलना है। शरीर के नियंत्रण व नियमन की जितनी चिन्ता होती है, शरीर उतना अधिक खतरनाक हो जाता है। वहीं जब क्रिया का स्वरूप स्पष्ट है तो मात्र साध्य अन्तर्मन से उठने वाली तरंगो के प्रति सहनशीलता को प्राप्त करना है। शरीर के नियंत्रण पर हजारों साल से जो बल दे रहे हैं, वह यह जानकर भी छोड़ने का साहस नहीं कर पा रहे है। मन से असहयोग लेना है मन का निष्क्रमण भूत और भविष्य में है। वर्तमान में रहने का अभ्यास बढ़ते ही मन स्वतः अनुपस्थित हो जाता है। यह क्रिया तन्त्र को राजी रखने का तरीका नहीं है, वरन उसका सहज साक्षात्कार है। जिससे वह स्वतः अनुपस्थित होने लग जाता है। यही पहली मंजिल है, न यहां दमन है, न क्षय की स्पर्धा। अभ्यास का क्रम है, मात्र साक्षी ध्यान। यही हमें जानना है, आगे गहरे समझना है। तभी साधना का रहस्य समझ में आता है। यही सार है। तभी लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।

साधना रहस्य
प्रश्न कर्म का स्वरूप क्या है ?
स्वामीजी ये स्मृतियां जो हैं, संग्रह रूप में हमारे अन्दर है। वो हैं संस्कार क्या होता है, बैठे-बैठे ही, अपने-आप ही, अनायास ही उसमें वासनाएं उत्पन्न होती है, और क्यों होती है, कैसे होती हैं ? इसका कोई कारण नहीं। वह मनुष्य स्वयं नहीं करता, वह प्रकृति कराती हैं। मैं यह कहता हूं कि इस प्रकृति से हम इतने जुड़े हुए हैं कि कई हमारे अन्दर से आने वाले विचार अपने आप उठते है। उन संस्कारों के कारण यह प्रकृति उन संस्कारों को धक्का देती है, वहां धक्का मिलते ही वासना रूपी यह प्रवृतियां उठती हैं और वे इन्द्रियों में जाकर के विषयों के लिए प्रेरित कर देती हैं। उसी से मनुष्य सब कुछ करता है। यदि पूर्व संस्कार उसके अंदर नहीं होते, उसको ज्ञान नहीं होता तो वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।
प्रश्न जन्म से जाति बदल गई, धर्म बदल गया, माता पिता बदल गये, भाषा बदल गई। सब बदल जाता है, संस्कार किस रूप में प्रभावी रहते हैं ?
स्वामीजी यह जो बातें हैं, वह यही की हैं। मैं वही तो कहता हूं कि मनुष्य केवल स्मृतियां अपनी और उसे स्मृतियों के आधार पर सुख-दुख जितना भोगना है वही लेकर आता है। उतना ही भोगेगा हर हालत में। वह भोगने के लिए उसके पास स्वयं का साधन नहीं है, उसकी प्रकृति अपने आप जुटाएगी।
प्रश्न सुख क्या है ?
स्वामीजी सुख यानि वही है। इन्द्रियों का शारीरिक सुख सब प्रकार का। मेरा अपना उदाहरण देता हूं। आज मैं जिस स्थिति में हूं, मैं पैसा कमाता नहीं हूं, मेरे पास पैसा नहीं है। मेरे पास जमीन जायदाद कुछ भी नहीं है, लेकिन इसके बिना मैं रह रहा हूं। समझ में आई न बात। यह जो मुझे मेरा भोग है। हालांकि मैंने सब त्याग दिया। कपड़े छोड़ दिये। सब कुछ। नंगा फकीर बन गया। सब कुछ। बिल्कुल अकेला हूं। खाने पीने के बर्तन न भांडे, कुछ भी नहीं। सब छोड़ दिये। परन्तु जो भोगता है, और वह भोगना, इसलिए कि वह संस्कार और उसके अंदर वासनाएं शेष हैं, वह अपने भोग, वो सब पूरे करवाएगी। कुछ भी साधन नहीं होते हुए भी होगा।
कई ऐसे हैं कि जिनके पास सब कुछ है, बैंक में पैसा है, परिवार है, जमीन जायदाद है, यह है, वो है, लेकिन ऐसे घर में झगड़े हैं कि परेशान हैं, घर छोड़कर कहंी दूसरी जगह जाकर जीवन बिता रहे हैं।
प्रश्न मनुष्य जन्म के साथ क्या लाता है ?
स्वामीजी पूंजी के रूप में संस्कार और ब्याज के रूप में सुख-दुख मिलता है।
प्रश्न यहां मनुष्य को करना क्या है ?
स्वामीजी वहां इसे इतना ही करना है कि यह जो ऊपरी मन है, इसकी गति को ठीक करके अन्तर्मन के द्वारा यह जानने का उसको प्रयास करना है कि यहां हमें कैसा व्यवहार करना है कि जिसके द्वारा यह हमारी स्मृतियां और वासनाएं आगे न बढ़ें। क्योंकि वे आगे बढ़ती जाएंगी और वासनाएं इस प्रकार ही उठती रहेंगी। तो कभी न कभी धोखा देंगी। ये कभी नीचे ले जावेगी, कभी ऊपर ले जावेंगी, यानी यह दुख बढ़ेगा। तो कभी न कभी ये धोखा देंगी।
प्रश्न मनुष्य के जीवन के साध्य सुख और शांति हैं, क्या सुख और शांति एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ?
स्वामीजी बिल्कुल नहीं हैं, सुख होेगा तभी तो शांति मिलेगी। दुख में मनुष्य को शांति कैसे रह सकती है ?
प्रश्न सुख तो इन्द्रिय जन्य है, भोगों की प्राप्ति से प्राप्त संतुष्टि है।
स्वामीजी इसी से संतुष्टि मिलती है, और संतुष्टि से शांति मिलती है। यदि वासनाएं बार बार इस प्रकार की प्रबल हो जाती है और सुख के पीछे मनुष्य पड़ा ही रहता है, तभी धोखा है। इसलिए अन्तर्मन से संबंध जोड़ने के बाद, यानी अन्तर्मन से व्यवहार होेने के बाद, वह सुख तो भोगेगा, परन्तु सुख के पीछे लालायित होकर पीछे नहीं पड़ेगा। यानी यह जो वासनाएं काम क्रोध आदि हैं, इनसे छुटकारा होगा। इनसे छुटकारा होने से संस्कारों में जो वासनाएं उत्पन्न होती हैं, वे वासनाएं उत्पन्न होगी। बुद्धि उसकी हमेशा स्थिर रहेगी। और प्रकृति के द्वारा जो कार्य दिया गया है, केवल वही कार्य वो सुचारू रूप से करेगा।
बस, इतना ही सार है, इससे आगे कुछ नहीं। कोई सेठ साहब का नौकर है। यदि वह नौकर, जो काम कहा उसी काम को लापरवाही से करे। तो वह कार्य प्रिय नही होता है। परन्तु वह नौकर, यदि साहूकार की इच्छा जान करके उसको जो चाहिए, उसे पहले ही तैयार करता रहे तो साहूकार को प्रिय होता है।
प्रकृति का भी यही नियम है।
प्रकृति क्या चाहती है, क्योंकि यह सब नाटक प्रकृति का ही है। क्योंकि हम भी उस प्रकृति द्वारा निर्मित उसके पुर्जे ही है।
प्रकृति चाहती है कि हम कुछ करें।
जबकि हम,हमारे पूर्व संस्कारों के अनुसार जो वासनाएं उत्पन्न होती है, उसके पीछे दौड़ते हैं। उसे पूरी करना चाहते है। प्रकृति के विरोध में हमारा व्यवहार होता है।
और यह विरोध इसलिए होता है कि हम अपने मन के अधीन हो करके, मन यह कहता है- यह अच्छा है, वह अच्छा है, करते हैं।
और जो प्रकृति चाहती है, वह नहीं होता है।
प्रश्न सुख और शांति एक दूसरे के विरोधी नहीं है ?
स्वामीजी यह मैंने पहले बताया था कि पहले हमें शांति प्राप्त करनी है, तो सुख और दुख दोनो समान स्थिति में पहुंचने के लिए उस स्थिति में पहुंचना पड़ेगा। आगे अन्तर्मन तक जाना पड़ेगा। परन्तु अन्तर्मन में जाने से पहले यह वर्तमान मन को हमें समाप्त करना है, तो उसके प्रयास के लिये सुखी रहना जरूरी है। इस समय यदि हम दुखी हैं तो यह मन विचलित है।
उस अवस्था में पहुंचने के बाद सुख और दुख दोनो समान हो जाते हैं।
पहला कर्त्तव्य यह होगा कि हमें सुखी जीवन जीना है, उसके द्वारा शांति प्राप्त होती है। शांति के बाद आनन्द की स्थिति है, वह अन्तर्मन के द्वारा प्राप्त होती है।
प्रश्न आनन्द की सत्ता है ?
स्वामीजी हां, आनन्द की स्थिति में सुख दुख दोनों ही समान होते हैं।
प्रश्न शान्ति ?
स्वामीजी शांति, आनन्द के पहले की स्टेज है।
प्रश्न शांति की अवस्था में सुख दुख ?
स्वामीजी शांति की अवस्था में सुख दुख दोनो का अनुभव होता है, परन्तु शांति होती है। क्योंकि सुख वहां ज्यादा होता है, दुख कम हो जाता है। आनन्द इसके बाद की स्टेज है, यहां दोनो का समान रूप हो जाना चाहिए।
इसके लिए केवल चर्चा करने से कुछ नहीं होता है, वह तो इसके लिए स्थिर रहकर अन्तर्मन तक जाना होगा।
प्रश्न साधना का सार ?
स्वामीजी अन्तर्मन से अपना व्यवहार करो, यही सार है।
प्रश्न ः साधना हेतु जो साधन आपने प्रदर्शित किये हैं, इसमें पहला है- आत्मनिरीक्षण का। चित्त-सरोवर पर उठने वाली लहरों का गहरी सतर्कता, जागरूकता के साथ अवलोकन जिससे क्रमशः संकल्प निवृत्ति आ जाती है।
और उसी के साथ आपने बताया था-नाद श्रवण
क्या ये दोनो साधन अलग-अलग नहीं है ?
स्वामीजी ये दो अलग अलग बातें बतायी है, ये एक ही है। यदि मन से ऊपर उठने वाली वृत्तियों पर ध्यान रखा तो इससे भी नाद सुनाई देगा, यदि नाद पर ध्यान दिया तो वृत्तियां अपने आप शांत हो जावेगी। बात एक ही है।
परन्तु दो उसके अलग अलग तरीके हैं।
इस रास्ते से जाओगे तो उधर पहुचोंगे और उस रास्ते से जाओगे तो इधर पहुंचोगे।
तो मन की स्थिरता और यह नाद, दोनो एक ही स्थिति है। परन्तु इससे होना क्या चाहिए।
कि स्थिर बुद्धि होते हुए भी हमारे व्यवहारिक कार्य बदस्तूर चलते रहने चाहिए।
यह बात जरा कठिन है।
काम करने लगते हैं, मन हट जाता है।
वह नहीं हटे, इसी के लिए उसी स्थिति मंे जैसा नाद सुनाई पड़े सुनते जाओ, सुनते जाओ।
बीच में बाधा नहीं पड़े तो अनन्य चिंतन जैसी स्थिति हो जानी चाहिए।
उसी स्थिति में आगे जाकर धीरे-धीरे यह स्थिति आती है कि चौबीस घंटे वैसा ही मन स्थिर रहता है, और तमाम कार्य सुचारू चलते रहते हैं।
तो इसी से वह ‘माम अनुस्मर युद्ध च’ वाली स्थिति आ जाती है।
युद्ध भी चलता रहता है। शारीरिक कार्य भी चलते रहते हैं।
मन चिंतन में एक ही जगह अपने आप में स्थिर रह जाता है।
इसी को भक्ति भी कह सकते हैं। ज्ञान भी, निष्काम कर्म योग भी कह सकते है। नाम अलग-अलग हैं, स्थिति एक ही है।
प्रश्न इस संसार में हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ?
स्वामीजी करना जो है, अनादि काल से चला आ रहा है, चलता रहेगा। तुम्हें स्थिर बुद्धि होकर के, अपनी बुद्धि स्थिर करके जो पार्ट तुम्हें मिला है, अदा करना है। अदा तो करो, पर उसका स्मरण मत करो।
जहां तुमने याद किया, वह तुम्हें सतायेगा।
स्मृति ही पाप है।
इसीलिये कहता हूं, वर्तमान मंे रहो।
क्षणभर भी पीछे मत जाओ, न क्षण में आगे का सोचो।
प्रश्न पाप और पुण्य की ये जो शास्त्रीय मान्यताएं हैं?
स्वामीजी ये जितनी भी कल्पनाएं हैं, तभी तक हैं,जब तक हम स्वयं अंतर्मुखी नहीं बनते हैं। जब स्वयं अन्तर्मुखी बनने लग जावेंगे तो हमें स्वयं से प्रेरणा मिलने लगेगी, यह काम हमें करना है। यह काम हमें नहीं करना है।
उसमें यदि अच्छा-बुरा हो जाता है तो वह जिम्मेदारी हमारी नहीं वह जो हमें पार्ट दिया है, वह हमें पूरा करना है।
एक थानेदार यदि किसी अपराधी को पीटते समय यह समझे कि मै पाप कर रहा हूं तो वह काम करेगा नहीं। उसकी डयूटी पूरी होगी नहीं।
वैसे पेड़ पौधों में हरेक में जीव है।
काश्तकार कहेगा, मैं फसल काटूंगा तो पाप हो जावेगा तो इस तरह से यदि हम सोचेंगे तो अपना जीवन ही नहीं चलेगा।
यह तो सब कार्य करते रहना चाहिए।
इसीलिए बार-बार अर्जुन से कृष्ण ने यही कहा कि युद्ध करो। युद्ध माने हिंसा।
याने एक आदमी किसी को मार दे तो हिंसा है। युद्ध में एक आदमी हजारों को मार देता है।
तो वह कहां पाप माना जाता है।
उसको तो बहादुर मानते हैं।
तो यह कल्पना है हमारी, इसने हमें धीरे-धीरे इतना संकुचित बना रखा है कि हम इससे बाहर देखना ही पसन्द नहीं करते।
यह बुरा है, यह बुरा है, वह काम मत करो, इसका पानी मत पियो, इसका खाना मत खाओ, इससे दूर रहो, इतना हमें संकुचित बना रखा है कि जरा भी इधर-उधर नहीं हो सकते है। इन सबसे अगर छुटकारा पाना है तो अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ करो।
जैसे-जैसे अन्तर्मुखी होते जाओगे, वही मन, अन्तर्मुखी मन, जो और कुछ नहीं आत्मा की शक्ति है, इसके साथ हमें जुड़ने से पता चलेगा- स्थिति क्या है, हमें क्या करना है। यही गीता का उपदेश है।

दुःख के पार
प्रश्न असमानता ?
स्वामीजी असमानता प्रकृति का धर्म है, शुरू से ही है। सब एक-जैसे नहीं होते हैं। हां, इन्द्रियां सबकी एक ही जैसी होती है।
प्रश्न इन्सान एक दूसरे से अलग कहां होते हैं ?
स्वामीजी वासनाओं में, विकारो में बुद्धि सबकी एक जैसी ही है। वासना के कारण विकार किसी में अधिक होते हैं, किसी में कम होते हैं।
अन्तर, मात्र वासनाओं का ही है।
मनुष्य में भोग भोगने की इच्छा मात्र वासनाओं के कारण से होती है।
प्रश्न दुख का कारण ?
स्वामीजी वासना ही ।
प्रश्न कुछ लोग दुख अधिक भोगते हैं, क्या पूर्वजन्म कारण होता          है ?
स्वामीजी हां, जो लोग भले है, या तो अभी अधिक भले हैं, या ऊपर से भले हैं। आज की दृष्टि में तो बहुत भले हैं, यानी पहले का किया होगा, इसका फल तो भोग में आयेगा ही। या कहीं ऊपर से भले होते हैं, पर अंदर व्यवहार गलत होता है।
इस जन्म का, उस जन्म का सवाल नही है। लंबी जिंदगी है।
इस जन्म में जो शरीर धारण किया है। वह कभी भी छूट सकता है। कपड़े जब हम चाहें उतार सकते हैं, पहन सकते है। यह लंबी यात्रा है। कुछ अभी, कुछ बाद में करते जाएं, कुछ नये कार्य करते जांए। इससे फल नहीं जाते हैं। कुछ कर्मों का फल करते ही भोगना पड़ जाता है।
प्रश्न वर्तमान में जीने को जो कहा है,  उससे क्या दुख दूर हो सकता है ?
स्वामीजी उसके साथ यही होता है। आगे का गलत कर्म नहंी होता, यानी आगे का कर्म भोगने की आवश्यकता नहीं रहती। वह जो पूर्व कर्म के हिसाब से मिलते हैं, उसे भोगकर हम समाप्त कर देते हैं। नये कर्म नहीं बनते। वर्तमान में रहने से इतना ही लाभ है।
अच्छा यह स्थिति कायम रहने से शरीर और मन का संबंध अलग-अलग हो जाता है। मनुष्य यह अनुभव करता है कि शरीर में दुख है, पर उसका अनुभव नहीं करता। मन उससे विचलित नही होता। यह वर्तमान में रहने से लाभ है। यानी सहनशीलता बढ़ जाती है।
शारीरिक और मानसिक दर्द होता है, मालूम भी पड़ता है, परन्तु भोगने की क्षमता बढ़ जाती है। मन विचलित नहीं होता। इतना ही  लाभ है जो किया है- उसका फल तो भोगना ही होगा।
प्रश्न दुःख किन कर्मो से मिलता है ?
स्वामीजी यह जो मान्यता है, यह मैंने बुरा किया। स्मृति का चिंतन ही पाप है। वह यह मान लेता है कि मेरे हाथ से यह बुरा कर्म हुआ।
स्थिति-प्रज्ञ में यही तो कहा है। इनके मारने की क्रिया के निमित्त बनो। स्मरण मत करो। स्मरण यदि रहेगा तो वह दुख देगा।
प्रश्न पाप-पुण्य कुछ भी नही है ?
स्वामीजी व्यवहार में कुछ भी नहीं है। अगर स्मृति नहीं रहे तो पाप-पुण्य कुछ भी नहीं है। परन्तु स्मृतियां संस्कार बनाती है। बार बार चिंतन होने से उनके संस्कार बनते हैं। संस्कार प्रेरणाएं देते हैं- भोगने की। और इन्द्रियां उसे भोगती हैं।
प्रश्न व्यवहार में जो अच्छा बुरा है, अध्यात्म में उसका स्थान नहीं                  है ?
स्वामीजी व्यवहार कुछ लोगों ने सोच-समझकर बनाया है। स्मृति ही दुख देती है, स्मृति ही दुख का कारण है। पाप समझो।
प्रश्न दुःख से मुक्ति का उपाय ?
स्वामीजी उससे मुक्ति का उपाय क्या ? वह तो अपने आप परिवर्तित होता रहता है। जो वर्तमान में प्राप्त हुआ है, वह फलस्वरूप तो आएगा ही। स्वयं उसको उससे अलग रहना होता है। वह दुखी नहीं होता। मन वहां से हट जाता है। कई लोग, परिस्थितियों को भूलने के लिए नशा करते है। नशे से विस्मृत हो जाते है। इतनी देर स्मरण नही रहता। स्मृति अच्छी और बुरी दोनो ही तरह की होती है। दोनो ही दुखदायी होती है। सुखद स्मृति से अंदर अभिलाषा पैदा होती है। अभिमान पैदा होता है। फिर, फिर यह कार्य करने की इच्छा होती है। वर्तमान में रहने से यही याद होता है कि मुझे यह कार्य करने के लिए भेजा था, यह कार्य पूरा करना है। तो उस कार्य को करने के फलस्वरूप जो फल है वह नहीं छूता, क्योंकि यहां अभिमान नहीं होता।
व्यवहारिक जगत में जो सुख है, वह भी दुख ही है। क्योंकि सुखा जो है, वह उसके प्रति लालसा बनाए रखता है।
लालसा, इच्छाएं ही होती हैं। इससे वासनाएं पैदा होती हैं। इसीलिए कहा है- ‘सुखे दुखे समे कृत्वा’ दोनो को समान मानो। केवल युद्ध के लिए युद्ध करो, इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा।
स्मृति न रहे। अभिमान मत करो, यह मैं कर रहा हूं, अभिमान करता है- मन, मन को हटा लो।
कर्म तो करते रहो, मन को हटा लो। अंहकार को हटा लो। शुरू में समझने के लिए प्रयास करना पड़ता है। सहजावस्था में पहुंचना है। इच्छाएं क्या है, वासनाएं, वासनाएं क्या है, संस्कारों को प्रकृति के द्वारा दिए गए धक्के। उनसे वासनाएं उतपन्न होती हैं, वो ही इच्छाएं होती है।
कांच के समान होना होगा। जो आया, उसका व्यवहार किया। उसका प्रभाव न रहे।
प्रश्न स्मृति कैसे बनती है ?
स्वामीजी स्मृति अनवरत चिन्तन से बनती है कोई व्यक्ति आया, बातचीत हुई। भूल गए उसको तो कोई बात नहीं। परन्तु यदि उसकी बार बार याद आती रहे, वह धीरे धीरे गहरी हो जाती है। वह संस्कार बन जाती है।
प्रश्न कांच के ऊपर तो जो वस्तु आई उसका प्रभाव नहीं रहता, परन्तु मन तो कांच नहीं है, वहां चित्र बनता है अंकित हो जाता है ?
स्वामीजी हां, वह भी कब। उसका बार बार स्मरण रहे। किसी ने कोई बात कहंी और ध्यान नहीं दिया तो बात बाहर ही रह गई। वह जब याद दिलावे तो भी हल्की ही याद आती है। और कोई बात कही, ध्यान नहीं दिया तो वह भीतर चली गई।
गिलास में पानी है, रंग डाल दो। कुछ हवा में उड़ जायेगा, कुछ सतह पर फैल जायेगा, कुछ नीचे जाकर बैठ जायेगा। इसी प्रकार हमारे ऊपर घटनाओं का प्रभाव पड़ता है, वह मन रूपी कांच पर इसी प्रकार असर डालती है।
कोई तो आई और ऊपर से निकल गई। और कोई वहीं फैल गई। कोई नीचे जाकर फैल गर्इ्र। वही संस्कार बन जाती है। जो ऊपर उड़ गई, उसका पता ही नहीं। जो ऊपर सतह पर फैल गई, वह कुछ दिन ठहरी और चली गई। जो नीचे जाकर बैठ गई, वह संस्कार बन गई। वहीं से वासनाएं उत्पन्न होती है।
प्रश्न प्रारम्भिक अवस्था में वर्तमान में रहने के लिए मन पर उठने वाली वृत्तियों का अवलोकन आवश्यक है, क्या यह क्रिया हमेशा रहेगी ?
स्वामीजी ः यह तो शुरू में कुछ दिन लगातार अवलोकन करने की जरूरत है। इससे आदत पड़ जाती है, विचार न उठने की। अवलोकन तो विचार उठने की स्थिति है। इससे क्या होता है, विचार धीरे धीरे उठना कम हो जाता है। उसके बाद की स्थिति जो है, वह हमेशा रहने की है। हमेशा अवलोकन नहीं होता। दिन में काम करते समय अवलोकन करते रहोगे तो काम करने में बाधा पड़ेगी।
शुरू की अवस्था और बाद की अवस्था में अन्तर है। बच्चों की पढ़ाई शुरू करते समय पहले स्लेट पेन्सिल लेकर बैठाया जाता है।
यही प्रारम्भिक स्थिति है।
बाद में वह किताब देखते ही पढ़ने लग जाता है। यह बाद की स्थिति है। इस स्थिति में पहुंचने के लिए अवलोकन शुरू की स्थिति है।
अवलोकन रहते-रहते बाद में यह स्थिति आ जाती है कि विचार उठना बन्द हो जाता है।
इस स्थिति में रहना है। यह स्थिति हमेशा रहेगी। अवलोकन हमेशा नहीं रहेगा।
वैसे क्रिया के लिए श्रेष्ठ समय रात का है।
साईकिल चलाते समय जब सीखा जाता है, तब ध्यान हैण्डिल पर रहता है, ध्यान वहीं टिका रहता है। बाद में, सीखने के बाद इतनी सावधानी की जरूरत नहीं रहती।
बाद में यह आदत में आ जाता है। फिर कुछ करना नहीं पड़ता, रहना पड़ता है।
यदि बात ढंग से समझ में आ गयी और अमल में आने लग गयी तो जल्दी ही सब हो जाता है। चाहिए यही, अभ्यास बना रहे।
हम चाहते भी हैं, करते भी हैं, पर स्थिरता प्राप्त नहीं होती है। और बातों में रस आता है। जो काम दस मिनट में होता है, यहां घंटो लगा देते हैं। व्यर्थ का कार्य और फालतू बातें करते है। फालतू कामों में अपने आपको लगाये रखते हैं, दिमाग में जितना फालतू बातों का जमघट होगा, स्थिरता उतनी ही दूर रहेगी। दिमाग पर  फालतू चीजों का जो बोझा डाला है, वह बाधा डालेगा ही....

सहज योग
प्रश्न आपने कहा था, जब तक चिन्तन है, तब तक संसार है। जब चिंतन ही नहीं रहा, तब संसार कहां रहेगा ?
स्वामीजी फिर उल्टे चले गये आप ! जो चल रहा है, वह तो चलता ही रहेगा। फिर स्टेज पर काम कैसे होगा ? जब नाटक ही नहीं रहा, तब काम कौन करेगा ? इसीलिए जब तक शरीर है, तब तक संसार भी है। काम भी होगा, बदस्तूर होगा। नहीं कैसे रहेगा संसार। जो कहते हैं- संसार असार है, उनका कहना है, प्रतिक्षण यह भूत में जा रहा है, इसीलिए आप आज कितना भी करो, कल उसका क्या महत्व हो, कुछ पता नहीं। हजारो सालों की बात आज कितनी सही है, कोई दावे के साथ नहीं कह सकता, वह तो बदलती ही जायेगी।
प्रश्न यहां जो कर्म होगा, इसमें किसी तरह के संस्कार वहीं             बनेंगे ?
स्वामीजी नहीं बनेंगे। क्योंकि हर चीज आयेगी और कांच के सामने से निकल जायेगी। प्रवेश द्वार अन्दर होगा ही नहीं। स्मृति तब बन जाती है, जब वह अन्दर पहुंच जाती है। इधर से आये, उधर से गये। हमने देखा ही नहीं। अन्दर पहुंचेगा ही नहीं, बोलते समय देखा है, घड़ी से घंटे बज उठते है। घंटे बज रहे है। कानों ने भी सुना था, पर बातें करते समय कोई पूछे कब बजे, पता ही नहीं रहता। वह वहीं के वहीं रह गया।
वर्तमान में रहने का मतलब है जो देखें, सुनें, वह वहीं के वहीं से वापिस लौट जाये। अन्दर नहीं पहुंचे।
अन्दर पहुंचते ही वे संस्कार बन जावेंगे। जो बातें सुनी, वहीं छोड़ जाओं।
इसके बाद जब यह स्थिति निरन्तर बनी हुई हो, तब शरीर वही काम करता है, जो शरीर के द्वारा प्रकृति को कराना होता है। उसमें वह सुन भी लेता है। कर भी लेता है। तो उसको आगे का संस्कार नहीं बनता। अपने आप ही सब कार्य होते रहते है। प्रकृति आगे सब कार्य करवाती है।
प्रश्न इससे शांति मिलती है ?
स्वामीजी बिल्कुल।
प्रश्न क्या इससे संचित संस्कार समाप्त हो जायेंगे ?
स्वामीजी पहले का कितना भी हो। नया नहीं बनना चाहिए। कितनी भी बड़ी पूंजी हो, अगर नया नहीं बनता है तो खतम होना चाहिए। स्वाभाविक बात है। सबसे जो मोटी बात है, इतने चक्कर में पड़ने के बजाय वर्तमान में रहो। अपना सब काम करते जाओं, जरा भी आगे पीछे मत घूमो।
प्रश्न यह जो आपने पहले बताया था कि साधक को चाहिए कि वह अपने मन की वृत्तियों का सजगता पूर्वक अवलोकन करें ?
स्वामीजी शुरू में जो लोग इस बात को नहीं समझते हैं, उन्हें इस स्थिति में लाने के लिए कहना पड़ता है। इस स्थिति में लाने के लिए यहां शुरू की क्रिया है, इससे जो स्थिति बनेगी, वह वर्तमान में रहने की अवस्था होती है। और अगर यह समझ गए हो तो यह सब शुरू से करने की जरूरत नहीं हैं।
प्रश्न विचार तो अवलोकन करते ही ढेर से चले आते है। इतनी बातें, इतना कचरा, यह काम हो पायेगा ?
स्वामीजी यही तो कह रहा हूं। ढेर जो आता रहता है, निरन्तर ध्यान रहने से वह क्रिया शिथिल होती जाती है। इस स्थिति में ढेर जो आता है, वह आना बन्द हो जायेगा। निरन्तर ध्यान रहेगा। शिथिल होते-होते नाद सुनाई पड़ता है। यही वर्तमान में रहने की स्थिति है। वह जिन्हें यह समझने में नहीं आता है, उन्हें पहले यह कहा जाता है। नाद सुनते सुनते अपना कर्म चलता रहता है, यही वर्तमान में रहने की स्थिति है। तब चिन्तन इसका होता ही नहीं है।
प्रश्न यही योग है ?
स्वामीजी जहां करने का ध्यान आया। वहीं हट गए, फिर संसार आया। फिर मन का सहारा लो। फिर मन से दूसरी वस्तु का सहारा लो।
प्रश्न सिद्धान्त तो बहुत छोटा है ?
स्वामीजी: उलझा रखा है लोगों ने। जांच कर देखते हैं, शास्त्र में यह लिखा है या नहीं। इसमें न तो वर मांगना है, न सहारा लेना है, न आशीर्वाद है, न गुरू है, न कोई अलौकिक खेल है, यहां बस शांति है। यह भी नहीं है, यह छोड़ो, यह करो, जो है जहां हैं, जिस स्थिति में हैं, ठीक है।                          

साधन सूत्र
स्वामीजी से विभिन्न अवसर पर हुई वार्ताओं के आधार पर
प्रश्न अनुभव की स्थिति का क्या महत्व होता है ?
स्वामीजी यह सब होता जरूर है, पर इसका कोई महत्व नही है। यह लोगों को बताने के लिए होता है कि इस तरह चलोगे तो यह सब होगा। बाद में पता होगा कि चमत्कार तो होंगे, पर इनका कोई महत्व नहीं है। शरीर छोड़ने के बाद तो सब मटियामेट हो ही जायेगा।
प्रश्न धर्म का क्या महत्व रहा ?
स्वामीजी धर्म तो मनुष्य का बनाया हुआ है।
प्रश्न और शास्त्र ?
स्वामीजी यह मनुष्य ने अपनी बुद्धि से अपने स्वार्थ के लिए, अपने लिए बनाये है।
प्रश्न फिर गुरू ?
स्वामीजी मात्र अध्यापक है। जैसे हम हैं, वैसा ही है। गुरू के ऊपर आधारित होने से हम अशक्त हो जाते हैं, काहिल हो जाते है, जो वह कहेगा, वह करते रहो, अपना कुछ नहीं होता।
प्रश्न सन्तों ने भक्तों ने मध्य काल में काफी कुछ कहा है, उसका हमारे लिए क्या महत्व है ?
स्वामीजी वह उनके प्रयोग थे। जो उन्होंने किया, वह कहते गए। प्रकृति का यह भी एक खेल है। जो जिस भावना को लेकर चलेगा, उसे उसमें सत्यता नजर आयेगी और वह यह कहता फिरेगा कि जो उसे दिख रहा है, वही सच है- बाकी सब झूठ है। यह गलत भी नही है। यह भी नाटक ही है।
प्रश्न तो फिर हमारे जीवन में शास्त्र का महत्व नहीं रहा ?
स्वामीजी शास्त्र मनुष्य के बनाये अपने-अपने समझ के ग्रन्थ हैं। महत्व यह हुआ, आज भी अगर चार आदमी बैठे हों और दूसरा कोई छींक दे तो जाता हुआ आदमी आकर वापिस बैठ जाता है। डरपोक बना दिया है।
प्रश्न तो फिर मोक्ष का सिद्धान्त क्या है ?
स्वामीजी एक व्यक्ति का लाभ हो ही नहीं सकता। नाटक सबके लिए है। अपना पार्ट इतना अच्छा होता रहे कि उससे प्रभावित होकर दूसरे भी अपना पार्ट बेहतर कर सकें।
प्रश्न सांसारिक-जीवन और धन की उपादेयता रहेगी?
स्वामीजी क्यों नहीं। व्यवहार के लिए धन की जरूरत है। संग्रह भी करो। सब काम करते रहो। बस चिंतन समाप्त करो।
प्रश्न साधना में अभ्यास होगा ?
स्वामीजी प्रारम्भिक अवस्था में वाणी पर निगाह आवश्यक है। इससे दूसरों की आलोचना रूक जाती है। वाणी का संयम रखने में जिहृा का संयम भी है। कम बोलना और स्वाद पर मन का नहीं जाना- यही अभ्यास है। सब से अधिक फिसलने वाली चीज जिहृा है। बोलते ही मन अधिकांश आलोचना मंे चला जाता है। और मन वर्तमान से हट जाता है। यहां गड़बड़ होने से मन हट जाता है।
प्रश्न ब्रह्मचर्य आत्म साक्षात्कार में कहां पर है ?
स्वामीजी वह जो समझ रहे थे, इसमें ऐसा होगा, वह लिखते रहे। आज आये, उन्होंने कहा- वह क्या गलत लिख गये थे। वो भी लिखते रहे। लेकिन भूखे मरो, यह भी कोई लाभ है। विजय श्री है। इन्द्रियों पर आधारित है। सब इन्द्रियां सही काम करेगी, तभी शरीर चलेगा। ब्रहृाचर्य का पालन करो, खूब माल खाओ। रस तो बनेगा। फिर क्या होगा। नियम यही है। दुराचारी मत बनो। व्यभिचारी मत बनो। उचित है कि भोजन की मात्रा पर निगाह रहे। रसना पर स्वतः ही निगाह हो जावेगी।
छोड़ना और छूटना
मैंने तो कभी नहीं कहा- यह छोड़ों, यह मत छोड़ो। क्योंकि मैं मानता नहीं हूं कि इससे व्यवधान पड़ेगा। हां, अगर वर्तमान में रहने का अभ्यास बढ़ता गया तो इसकी स्मृति ही नहीं होगी। वह स्वयं तुम्हारा छूट जावेगा। यही अच्छा है।
प्रश्न वर्तमान में रहने का अभ्यास नहीं करना पड़ता?
स्वामीजी जहां क्रिया शुरू करो, वह चक्कर में पड़ जायेगा। प्रकृति को जो चाहिए, वह कराती रहेगी। वह मालिक है। वह नाटक करा रही है। पात्र वही देती रहेगी। वर्तमान मे रहने के लिए बाहृा साधन की जरूरत नहीं है। किसी भी चीज की आसक्ति नहीं रहे।
प्रश्न ः भक्ति की क्या प्रारम्भिक अवस्था में जरूरत रहेगी ?
स्वामीजी हां, यदि हम आज कहें कि कोई जरूरत नहीं है तो जो लोग पीछे रह गये हैं यही मान बैठे हैं, कितने लोग छोड़ बैठेंगे। उससे लाभ नहीं, अहित ही होगा। वैकुण्ठ में वही रहेंगे। जरूरत इस बात की है कि वह स्वयं आकर अनुभव करे कि जो हमने किया, उसकी जरूरत नहीं थी। परन्तु यह सब नाटक इसी तरह चलेगा। ना, करते हुए भी लोेग करते रहेंगे, करके ही हट सकते हैं। कोई बहुत बड़ा मकान बनाना होता है तो छोटे मकान बनाने के बाद मकान हटाना पड़ जाता है। मूर्ति पूजा, भक्ति का स्थान छोटे मकान की तरह ही है।
नाद-श्रवण
सब काम करते हुए भी नाद सुनने का अभ्यास रखना है। मैं पूरे समय सुनता रहता हूं। बोलते पढ़ते, घर में भी, चाहे कितना शोर हो, बातें करते व सुनते हुए भी नाद सुनाई देता है। ध्यान वहीं रहता है। वैसे मन की यह क्षमता है कि एक समय में दो काम कर सकता है।
प्रश्न क्या नाद सुनते समय काम पर एकाग्रता रह सकती है ?
स्वामीजी वही तो मैं कह रहा हूं। काम करते समय भी नाद सुनते रहो। काम करते रहो। मन एक साथ दो काम कर सकता है। तीन नहीं। अभ्यास होने के बाद अपने-आप चलता है। नाद कान नहीं सुनता। यह जो नाद सुनने का कार्य है, वह यह कान नहीं सुनता।
प्रश्न तो ?
स्वामीजी रात को स्वप्न हमको किस आंख से दिखता है। उस समय कौन सी आंख होती है। प्रकाश भी दिखता है। चित्र भी दिखते हैं। कौन देखता है।
प्रश्न नाद कौन सुनता है ?
स्वामीजी सुनने वाला कौन है ? जब तक अपन बोल रहे, चल रहे, खा रहे, पी रहे, अपना ही सुनते हैं। परन्तु सुनते सुनते जब उस स्थिति में पहुंच जाते हैं, सबसे परे, तब अनुभूति होती है। जब तक अनुभूति नहीं होती है, तब तक जीवात्मा जिसे हमने मन, प्राण कहा है, जिसके अन्दर संसार है, उसी में वासनाएं पैदा होती हैं। वह सुनता है।
प्रश्न वह कौन है ?
स्वामीजी यह उसके परे जाकर मालूम पड़ता है। तब तक उसका पता नहीं लगता।
उसका पता लगाना ही है- मैं कौन हूं ? और उसके लिए यह सब व्यवहार होना चाहिए, यह होते-होते बाद में, जब यह पता लगेगा, तब संसार नहीं रहेगा। कहने वाला नहीं रहेगा।
बहुत पहले बातचीत में स्वामीजी ने चर्चा में कहा था कि उन्हें ऐसा अनुभव होता था कि जीवात्माएं झुण्ड रूप में उनकी कुटिया में रात के तीसरे पहर आते-जाते दिखाई दे जाती थी- उनका स्वरूप जुगनू की तरह होता था, किसी की अधिक चमक होती थी, तथा किसी के चारों ओर कम प्रकाश के कण गुंथे रहते थे।
यही चर्चा दुबारा उठ खड़ी हुई-
स्वामीजी बस, आस-पास ऐसे झुण्ड प्रकाशवान एक साथ जाते हुए दिखे, जैसे जुगनू नजर आते हैं, वो थोड़े दिन जब तक जानने की इच्छा रही, दिखते रहे। वो इसी प्रकार के पुंज होते हैं। जिन्हें जीवात्मा कहा जा सकता है।
वो कहीं न कहीं अपने अनुकूल वातावरण ढूंढती फिरती हैं।
प्रश्न अनुकूलता क्या है ?
स्वामीजी अनुकूल, जो चीज अपने लिए अनुकूल होती है, जिससे प्रसन्नता होती है, दुख नहीं होता है। जो अपने को विचलित नहीं करती, उसे अनुकूलता कहते है।
प्रश्न तो क्या जीवात्मा नये जन्म का स्वयं चयन करती है ?
स्वामीजी प्रकृति के द्वारा जो लहरें उठती हैं, संस्कारों में वासनाएं पैदा करती है। उस स्थिति में भी वासनाएं रहती हैं। उस स्थिति में भी लहरों का टकराव रहता होगा। वे वासनाएं पूर्ति के लिए स्थान ढूंढती फिरती हैं। जिस परिवार में, जिस परिस्थिति में, जहां अनुकूलता मिले, वो जन्म लेने का प्रयास करती हैं।
आत्म निरीक्षण
वही है, अपनी वृत्तियों का निरीक्षण। आत्मा तक पहुंचने के लिए रास्ता तो वही माना है। बाहर जो कुछ नजर आता है, अनुभव होता है- इन्द्रियों के द्वारा, वहां आत्मा नहीं है। आत्मा तो इन्द्रियों से परे, मन से परे है। वहां पहुंचने के लिए रास्ता यही ढूंढा है। इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाकर मन के द्वारा उसका प्रयास किया जाये। मन वहां निष्क्रिय होगा। उस स्थिति में ही आत्मा की अनुभूति होगी। कहा है कि वहां यह भी नहीं, वह भी नहीं, कुछ नहीं रहता है।
वहां तक ले जाने की स्थिति है। उसके बाद कोई पहुंच जाए, यदि पहुंच जाए तो कहने के लिए नहीं रहता।
साक्षात्कार
वही है, वही जो शक्ति है। जिसकी अनुभूति मात्र होती है। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों और मन से परे जाने के बाद ही उस शक्ति का आभास होता है।
जिस प्रकार समुद्र के ऊपर अनवरत लहरें उठा करती हैं, उसी प्रकार संसार सागर के ऊपर वृत्तियों की लहरें उठा करती हैं। ये हर व्यक्ति के मन में संस्कारों को धक्का देती है। उसमें वासनाएं पैदा कराकर कार्य करवाती हैं।
तो यह शक्ति किस प्रकार उसको धक्का देती है। किस प्रकार वासनाएं जागृत होकर मनुष्य में इन्द्रियों द्वारा व्यवहार कराती हैं, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मनुष्य का हो सकता है।
यह उस स्थिति में होता है, जो जीवनमुक्त-अवस्था में पहुंच जाता है। इसका यहां तक ही है, उसके आगे का नहीं होता। वह शक्ति क्या है? उसका कार्य किस प्रकार होता है, यह नजर आता है, जिस प्रकार बिजली नजर नहीं आती, कार्य नजर आता है। यह अनुभूति होती है। यह यहां तक ही है, उसके बाद न तो शरीर ही रहेगा न मन ही रहेगा। आगे की स्थिति क्या है, इसका बोध नहीं होता। स्थिति नजर नहीं आती। इसका कार्य नजर आता है। परन्तु शक्ति का अनुभव नहीं होता। शक्ति तो महान है। इसके बाद शरीर टिक नहीं सकता। सीधा ही पावर हाउस में लट्टू लगा दिया जावे तो वह उड़ जावेगा, इस शक्ति का इस छोटे से रूप में कार्य नजर आता है कि इस प्रकार लहरें उठ रही हैं, कार्य करा रही हैं।
नाद श्रवण
यह अन्तर्मुखी बनने की यात्रा है। यही आत्म चिंतन है, यह इसी की यात्रा है।
प्राचीन-काल में ऋषि मुनि यहां तक तो पहुंच गये थे। उन्होंने कई विधियां बतायी, बनायी। परन्तु यह प्रारम्भिक अवस्था ही थी। जहां तक जिसकी पहुंच थी, वह बताकर रह गए थे। पूर्ण अनुभव भी किसी को हुआ होगा, हुआ होगा तो शरीर नहीं रहा होगा। इसीलिए अच्छे आचार-विचार बना गये। दुनिया ठीक ढंग से चले शास्त्र बनाये गए। उपनिषद् भी आए, उनमें क्रम है, स्तर है।
अवतार भी बताये, उसमें अन्तर रखा। राम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहा। कृष्ण को योगेश्वर बताया, पूर्ण अवतार उन्होंने भी कहा- आत्म चिंतन करो कहा, वही सार वही, आत्म चिंतन और नाद श्रवण आत्म चिंतन ही है।
स्थिति-प्रज्ञ
जिसकी बुद्धि स्थिर है। जीवनमुक्त-अवस्था तक ही मनुष्य पहुंच सकता है। मुक्ति अगर होगी तो भी मरने के बाद होगी। अन्तिम-अवस्था तक मन रहेगा। मन जब अपने काबू में हो जावे तब वह विचलित नहीं होगा। गीता में कहा भी है-
”ऐषां ब्राह्यी स्थिति....” मन विचलित नहीं होगा। उस स्थिति में पहुंच सकते हैं।
सहज समाधि
समाधि का मतलब वृत्तियों का शांत हो जाना है। वृत्तियां बार बार न उठें। एकरस अवस्था रहे, यही समाधि है। यही तो संभव है। जीवनमुक्त अवस्था इसी का नाम है। सारे कार्य करते रहो। मन की यही अवस्था बनी रहे। यही समाधि है।
वन में जाना, एकान्त-वास करना, कोई लाभ नहीं है। विश्वामित्र वन में गए, मेनका के पहुंचते ही वापिस नीचे आ गए। यह कोई समाधि नहीं हुई। इससे तो परमहंस की समाधि श्रेष्ठ है।
यही परीक्षा की घड़ी है। जंगल में रहकर किया तो क्या किया, समस्याओं कठिनाइयों की, जो यहां संसार में हैं, यहीं परीक्षा होती है।
मन पर प्रभाव न पड़े, इसकी जांच संसार में ही हो सकती है। संसार में रहना आवश्यक है। घी आग के पास रहे, न पिघले तभी कहेंगे कि आग का प्रभाव नहीं पड़ा। यही तो समाधि है। अलग कोने मंे रख दिया तो क्या हुआ ?

अन्तर्यात्रा
प्रश्न आपने एक बार कहा था कि विचार की स्थिति नाभि में है, क्या इसका अनुभव संभव है ? क्या वहां तक पहुंच सकते             हैं ?
स्वामीजी बिल्कुल पता लग जाता है कि विचार वहीं से आ रहे हैं। किस प्रकार लहरें टकराती हैं, वहीं से किस प्रकार से ऊपर उठ जाती हैं, वासनाएं इच्छाए, इन सबकी अनुभूति हो जाती  है। यह पता लग जाता है कि इस प्रकार की लहरें आयी, यह भावना उठी है, अच्छी उठ रही है या बुरी। भेद यहां नहीं है, परन्तु व्यवहार में अच्छा-बुरा भेद होता हैं।
जैसे इन्दिरा जी की मृत्यु का समाचार सुनते ही, यह प्रकृति की लहर आकर टकराते ही, अगर हमारी भावना है, श्रद्धा है तो जिसने यह कार्य किया, उसके प्रति क्रोध की भावना उत्पन्न होती है। यदि मन स्थिर है, मजबूत है तो लहर टकराते हुए भी भावना नहीं उठती है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। इसी प्रकार हर बात का, साधारणतः कोई बात सुनते ही इसका रिएक्शन मन में उठता रहता है, परन्तु एकदम रिएक्शन मालूम पड़ता है कि वह क्रिया किस प्रकार हुई, हरेक को नहीं होता। तो जितना हम गहराई में पहुंच जाते हैं तो गहराई में क्रियाएं किस प्रकार होती हैं, इसकी अनुभूति होती है, और इसके बाद फिर भी यह आभास हो सकता है कि यह लहर किस प्रकार आयी, दूसरी किस प्रकार की आयेगी, तीसरी किस प्रकार की आयेगी। इससे क्या हो जाता है कि भविष्य में क्या घटनायें होने वाली है- उसका आशय इन लहरों के टकराव से होने लग जाता है।
कोई एकदम यह पूछे कि भविष्य में क्या होगा। यह एकदम तो कहना कठिन है क्योंकि प्रकृति बड़ी विचित्र है। क्योंकि कोई एकदम यह कह दे कि ऐसा हो जायेगा तो एकदम उसका उल्टा होगा। उसकी बात बिगड़ जायेगी। प्रकृति किसी की बात रहने नहीं देती है। परन्तु इस प्रकार यह ज्ञान होता है कि प्रकृति की स्वयं जो क्रिया होती है, एक के बाद दूसरे तीसरे, लहरें किस प्रकार उठ रही हैं, उनका परिणाम क्या होगा, यह मालूम हो जाता है।
प्रश्न विचार, उसकी क्रिया मस्तिष्क में प्रतीत होती है- इस विचार को नाभि में ले जाना क्या संभव है !
स्वामीजी इसीलिए तो यह क्रिया है कि विचार धीरे-धीरे जैसा कि मन का स्वभाव है, जो कि विचित्र है, जैसे कि अपन किसी चीज को पकड़ने लगते हैं तो वह भाग जाता है। तो इसी तरह से वर्तमान में हरेक व्यक्ति का मस्तिष्क ही काम कर रहा है। वहीं से विचार उठते हैं। हम सोचते हैं कि दिमाग से सोच रहें है, परन्तु वहीं उसके विचारों का अवलोकन करना प्रारम्भ करते हैं, क्या हो जाता है कि जो विचार करने की जो वहां क्रिया चलती है, उससे वो नीचे सरकता जाता है। वहां उसे पकड़ने की कितनी कोशिश करो, पकड़ में नहीं आता है, वह धीरे-धीरे नीचे सरकता जाता है। जितना विचार रहित मन होता जायेगा उतना ही वह धीरे-धीरे नीचे सरकते-सरकते अन्त में जाकर नाभि में विलीन हो जायेगा। जब जाकर उस मन की ऊपरी सतह पर जो हमारा वर्तमान मन है, उसका प्रयास समाप्त हो जाता है।
जो यह लहरें टकराने का सवाल है, वह अन्तर्मन से टकराती हैं। और यहीं से फिर वो ऊपर उठते-उठते वापिस दिमाग में आ जाती हैं, और यहां आकर फिर क्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं। तो फिर वह किस प्रकार नीचे खिसकता जाता है, इसका भी अनुभव हो जाता है।
प्रश्न इसकी पहचान कैसे होती है ?
स्वामीजी करने से होती है, जैसा मेरा अनुभव है, वह मैं कह सकता हूं, पर आपको अभ्यास करना होगा। साधन वही है। कोई अलग साधन नहीं है। रास्ता एक ही है। मेन रोड़ एक ही है। दूसरा रास्ता नही है। मेन रोड को पहुंचने वाले बाई पास होंगे।
हां, बाह्य मन नीचे आते-आते समाप्त हो जाता है, अन्तर्मन जो हमेशा जागृत रहता है, उसकी अनुभूति हो जाती है कि वहां प्रकृति किस प्रकार कार्य करती है। उसका ज्ञान हो जायेगा कि सूक्ष्म से सूक्ष्म दर्शन जो यन्त्र होता है, उसको बारीक से बारीक चीज नजर आती है। वहां जाकर सूक्ष्म से सूक्ष्म लहरें किस प्रकार कार्य करती हैं, इसकी अनुभूति होती है। इसी से भविष्य का आभास हो जाता है।
जब यह अभ्यास प्रारम्भ हो जाता है तो वहीं से यह आभास होता है कि यह घटना होने वाली है तो अपने को देखना चाहिए कि प्रयोग करके सचमुच यह घटना होती है या नहीं। यदि होती है तो फिर अपना विश्वास दृढ हो जाता है, फिर और प्रयास करो, इस प्रकार प्रयास करो तो और भविष्य की धटनाएं पता हो जाएंगी। इस प्रकार बढ़ते जाओ तो कई बातें आगे की पता हो सकती हैं।
फिर यह स्थिति आती है कि आज से आगे साल, दो साल, पांच साल बाद की घटनाओं का आभास होने लग जाता है ? परन्तु फिर उनका प्रचार हुआ, कहने की आदत हो गई तो प्रकृति को मौका मिलेगा। यन्त्र पकड़कर नीचे फैंकने का। अतः कहना भी हो तो संकेत में, ताकि और कोई नहंी समझे।
प्रश्न क्या हम इस मार्ग पर कुछ पा लेंगे ?
स्वामीजी आत्मविश्वास नहीं है तो क्या होगा ? प्रयास नाम से शून्य हो कुछ किया नहीं तो क्या होगा ! मैंने कई बार कहा- जबान पर जो नियमन चाहिए वह तो होता नही। दवाई भी खाते जाओ, परहेज भी नहीं करो। दैनिक जीवन में कितनी गड़बड़ करते हैं, पता नही। कभी सोचा है, पहले परहेज करो, तब दवा फायदा करेगी।
जो बातें गलत होती है, जबान से होती हैं, जबान का मन का- गहरा संबंध है। जब तक जीभ पर काबू नहीं है, तब तक मन पर काबू पाना कठिन है।
हम दिनभर जो बातें करते हैं, उसके बारे में सोचना चाहिए। हम जो वादे करते हैं, वो कितने पूरे करते हैं, सोचा है ?
इससे संकल्प शक्ति कम होती है। ज्यादा बोलने से शक्ति क्षीण हो जाती है। अनावश्यक बोलना, ज्यादा बोलना, इसमें तारीफ भी दूसरे की करनी होती है, बुराई भी होती है, बुराई ज्यादा होती है, सच्ची कम, झूंठी ज्यादा होती है। इस प्रकार की जो बातें हैं, वे बाधक हैं। बाधाएं पहले हटानी चाहिए।
प्रयास यही है, प्रयास करो।
मैंने जो बाते कही हैं, वे पहले जानने का प्रयास करो। जो बातें कही है, उन्हें गहराई से सोचो, तभी आगे जाकर कुछ हो सकेगा।

कारण रहित कारण
बार- बार यह सवाल उठा करता है कि आखिर इस दुनियां का कारण क्या है ? यह दुनियां आई कहां से, और इस दुनियां में हमारी उत्पत्ति का कारण क्या है ? एक सुबह यही सवाल सामने था।
स्वामीजी कह रहे थे- कोई कारण नहीं है, उस महान शक्ति की इच्छा हुई कि मैं अकेला हूं अनेक हो जांऊ, एक से अनेक होने की कामना ही यह फैलाव है और यह जब तक रहेगी तब तक फैलाव रहेगा, पर कामना होगी एक होना है।
मुक्ति कभी किसी एक की नहीं होगी, स्वप्न जब शुरू होता है, जब खत्म होता है, देखा है- एक साथ कहां से आते हैं, कहां चले जाते हैं, यही उत्तर है, पर्दा एक ही साथ गिरेगा। कारण रहित कारण है।
इतिहास भरा पड़ा है, हजारों साल हो गये, कितने बड़े साम्राज्य स्थापित हुए, सम्राट आये वंश चले, सब कहां चले गये, क्या परिवर्तन हुआ। कितने उपदेशक आये। कितने महान सन्त, बता सकते हो, कोई बड़ा परिवर्तन हुआ। आदमी जैसा हजार साल पहले था, उसमें आज कोई परिवर्तन आया है ? संसार की स्थिति वही है।
जो आदि काल में था, वह आज चला आ रहा है। बनता बिगड़ता फिर बनना, फिर बिगड़ना, यही खेल है यही प्रकृति का स्वभाव है। हजारों साल का इतिहास इसी बात का गवाह है। उसका कोई कारण नहीं है। तथा किसी अभिप्रायः को तलाश करना व्यर्थ ही है।
बहुत छोटी हमारी बुद्धि है, तभी तो शास्त्र में नेति नेति कहा है।

स्थिति प्रज्ञ
उस दिन हम लौट रहे थे और चर्चा यह हो रही थी कि जो अन्तिम अवस्था है, वह क्या होगी ?
लौटते हुए सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि चलते समय तो गन्तव्य पता रहता है।
स्वामीजी कह रहे थे, स्थिति प्रज्ञ की स्थिति जो तुम देखते हो, वही है। यहां सब सहज है। इस स्थिति में अन्तर्मन से ही सब कर्म व्यवहार चलता है। अन्तर्मन महान शक्तिशाली है। जिस प्रकार वहां से आने वाली लहरें निरन्तर टकराती रहती हैं। अन्तर्मन से उठने वाले संकल्प जिस किसी के लिए आते हैं, सीधे वहां जाकर टकरा जाते हैं। इस स्थिति में जिस किसी के लिए अन्मर्तन में जो संकल्प आता है, वह उस व्यक्ति के मन तक पहुंच जाता है। चर्चा अरविन्दाश्रम की मदर को लेकर हो रही थी। प्रसंग यह था कि विदेश मंे रहते हुए उन्हें यह प्रेरणा किस प्रकार से हुई, उन्हें भारत आना है और भारत आ करके अरविन्द से मिलना है और अरविन्द के आध्यात्मिक यन्त्र में एक महत्वपूर्ण साथी बनना है। स्वामीजी इसी प्रसंग को तो समझा रहे थे, उन्होंने इसी प्रसंग में निसर्गदत्त महाराज की पुस्तक के लव एंड गॉड पाठ की ओर संकेत किया कि किस प्रकार से वह व्यक्ति उन तक पहुंच गया। उनका कथन था कि जो इस प्रकार की विचारधारा के साथ जुड़े हुए हैं, उन्हें वह संकल्प उनके हृदय तक पहुंच जाता है। यह बात तब समझ में आती है, जब व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर अहर्निश मन तक टकराने वाली इन लहरों को अत्यधिक जागरुकता के साथ देख पाता है। चूंकि जो स्थिति प्रज्ञ की स्थिति में हैं, जो सहज है, जो आत्मज्ञानी है, उनके जीवन का, उनके शरीर का बस, एक यही उपयोग रह जाता है कि वे बस, मार्ग-दर्शन करें। वह भी एक सहचर होकर, एक साथी होकर इससे अधिक जो जागृत है, उनकी कोई अर्थवेत्ता नही है।
हम लौट रहे थे, और लौटते हुए जाना कि यश, धन, शिष्टाचार सब से दूर स्थित गांव में इस स्थान पर विकसित गहन, शांति होने का क्या अर्थ है।

सत्संग
उस दिन हम बैठे हुए थे, तब  सत्संग की चर्चा चल पड़ी, चूंकि शहर में एक बड़े सन्यासी आये हुए थे और वे सुबह शाम कीर्तन तथा प्रवचन करते थे। एक मित्र आये थे और वे स्वामीजी के पास कुछ देर बैठे, उनको कुछ उतावली भी थी, वे उठते हुए बोले - मुझे सत्संग में जाना है।
मित्र तो चले गये, पर शब्द खुला छोड़ गये।
स्वामीजी बोले सत्संग का तात्पर्य है, सत श्रेष्ठ श्रेष्ठ के साथ जोड़ना। आप मेरे पास घंटे भर से बैठे हुए हैं, मैं आपसे पारिवारिक बातें कर रहा हूं, अन्य बाते कर रहा हूं, व्यवहारिक बाते कर रहा हूं, आपकी शैक्षणिक, व्यापारिक समस्याओं की बातें कर रहा हूं। आप देख रहे हैं घंटेभर से क्या हो रहा है, क्योंकि आपका ध्यान आपकी एकाग्रता मेरी बातों की ओर लगी हुई है, मेरी ओर लगी हुई है। आपका मन मुझसे जुड़ा हुआ है।
किसी भी रूप में अपने मन को श्रेष्ठ मन के साथ जोड़ दें। मन स्वतःऊँचा उठ जाता है। जिस प्रकार से लोहे और चुम्बक का श्रेष्ठ संबंध है, जितना लोहा चुम्बक के पास रहेगा, उतनी अधिक शक्ति उसमें आयेगी और लगातार घिसने से सम्पर्क बनने से वह लोहा भी चुम्बक हो जाता है। इसी प्रकार श्रेष्ठ के साथ जोड़ना ही सत्संग है। जोड़ने का तरीका है। यह तरीका विश्वास का है और यह तरीका मानसिकता का है।
स्वामीजी बोले कि एक बार अष्टावक्र राजा जनक के दरबार में गया। जनक को बहुत जल्दी थी और वे घोड़े पर बैठते हुए अष्टावक्र से बोले कि मेरे पास समय नहीं, क्या तुम इतनी सी देर में कि मैं पैरदान पर पैर रखकर घोड़े पर बैठता हूं क्या तुम मुझे आत्मज्ञान की विधि समझा सकते            हो ?
अष्टावक्र ने सहमत होते हुए कहा- हां, तुम मुझे अपना मन दे दो।
संकेत था, शारीरिक उपस्थिति नही है। यहां मानसिक-समर्पण है। अपने आपको श्रेष्ठ के साथ जोड़ना संकल्प है और श्रेष्ठ से आप आध्यात्मिक कहें, परमात्मा कहें, चेतना कहें या नाम कुछ और दे दें, जो स्पष्ट है, जो हमारे भीतर है, जो हमारे पास है ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों मन, चित्त और अंहकार का नियामक उससे पहले अपने आपको जोड़ दे। फिर वही स्पष्ट है और उससे अहर्निश लगाव ही संकल्प होगा।

बस, एक छलाँग
उस दिन चर्चा चल रही थी कि क्या यह सच है कि साधक किसी भी रास्ते से चलकर आये, अन्त में वहीं पहुंचता है, जो उसका प्राप्तव्य है।
शास्त्र यही कहते हैं कि जिस प्रकार से विभिन्न सरिताओं का जल छोटी सरिता का जल बड़ी सरिता में, बड़ी सरिता का जल और बड़ी सरिता में होकर अन्त में समुद्र में समा जाता है, उसी प्रकार से किसी भी पथ से चलकर आये, अन्त में साधक अपने लक्ष्य को पा लेता है।
स्वामीजी ने इस सन्दर्भ में एक ही उत्तर दिया। वहां कोई रास्ता नहीं पहुंचता। वह रास्ता विहीन जगह है। स्वामीजी कहा करते हैं- वहां तक पहुंचने के लिये कोई रास्ता सहायक नहीं है। हमारे विद्वान यह दावा करते हैं कि उन्होंने जो रास्ता बताया है, उसी पर चलने से परमात्मा मिलेंगे। मोक्ष प्राप्त होगा। निर्वाण प्राप्त होगा, और यहां तक दावा करते हैं कि जो उन्होंने कहा था, सच है- और दूसरे ने कहा वह झूठ है।
स्वामीजी कहा करते हैं हर जगह इन रास्तों को लेकर मनुष्यता को जितना इन रास्तों ने बांटा है, जितना इन रास्तों ने तोड़ा है और किसी ने नहीं। और ये सब रास्ते मनुष्य जाति के लिये झगड़े हैं। अगर छोड़ना है, तो इन रास्तों को छोड़ो। वहां कोई रास्ता नहीं पहुंचता। हर रास्ता बाहर की ओर जाता है- बाहर ही संसार है, बाहर ही भटकाव है, बाहर ही सबकुछ वह है- जो तनाव देता है।
स्वामीजी कहा करते हैं, जो भी है, जहां भी है, जिस स्थिति में है, वहां जो प्राप्त होना है, उसे पा सकते हैं, और पाने का मार्ग यही है, उसे अन्तर्मुखी होना है। और अन्तर्मुखी होने के लिए किसी रास्ते की जरूरत नही। बस, एक निर्विचार, एक गहरे मौन और एक डुबकी की जरूरत है। बिना किसी आश्रय के बिना किसी आलम्बन के, अतः वहां कोई रास्ता नहीं पहुंचता। बस, एक छलांग और एक डुबकी। चेतना के समुद्र में अपने आपको खुला छोड़ देना ही सार है।

तनाव
चर्चा हो रही थी, विचार का उदगम अगर नाभि से है तो क्या हम वहां तक पहँुच सकते हैं, और वह यात्रा क्या होगी ?
स्वामीजी ध्यान से हमारी बात सुन रहे थे। प्रश्न था कोई असहनीय विचार आते ही सिर भारी हो जाता है, तनाव बढ जाता है, तथा प्रिय बात होते ही ठण्डक सी महसूस होती है, शांति मिलती है।
वे बोले अन्तर्मुखी होने पर यह सब पता नहीं चलता। उस वक्त कुछ नहीं रहता। क्रिया अपने आप चलती रहती है। मन उसमें नहीं उलझता। मैं जब बोलता हूं धाराप्रवाह अन्तर्मन से चलता है। पर मन शांत बैठा रहता है। वृत्ति दूसरी उभरती ही नही है। न तो भारीपन रहता है और न तनाव होता है। कोई दबाव नही। मैंने आज तक कोई नशा नहीं किया, कोई व्यसन नहीं।
थकावट तो मानसिक होती है।
मन यहां शांत रहता है, सारा काम अन्तर्मन से होता है।
आप जो कहते हैं, वह व्यवहार की बात है। ठीक है। विचार जो प्रिय होते हैं, रूचि पाते ही घर कर लेते हैं। वह ऊपर ठहर जाता है, हटाये नहीं हटता। यह विचार, यह तस्वीर, यह चित्र सब पूर्व की आदत है। वर्तमान में रहने के निरन्तर अभ्यास से वह धीरे-धीरे बदलती है। रास्ता मात्र अवलोकन का है। विचार जो उठा है, उसे महसूस करो, अस्वीकार नहीं। साक्षी ध्यान ही सार है। मात्र गवाह बने रहो, प्रतिक्रिया नहीं, अस्वीकार नहीं, दबाव स्वतः हट जायेगा। तनाव चला जायेगा।
यह आपकी आदत सी हो गयी है। कोई भी आपके सामने आया, आप तत्काल उसके बारे में राय जाहिर कर देते हैं। कुछ समझदार हैं, सुसंस्कृत हैं- वे बोलते नहीं, चुप रहते हैं। पर मन प्रतिक्रिया करता है पर यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। न मन पर न वाणी पर प्रतिक्रिया आनी चाहिए। यही तनाव का कारण है।
किसी के स्वभाव के बारे में जो जाना है, वह तो भूत का है। व्यवहार जो जाना है, वह तो पूर्व पर आधारित है। भला या बुरा। वह सामने आते ही स्मृतियां जग जाती हैं। संचित कोष के सहयोग से पुनः सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। वह सामने क्या आया, मन अत्यधिक सक्रिय हो जाता है। यही तनाव है यही ख्वाब है। इसे ही रोकना है।
हमें यह जानना है कि आखिर हमारा स्थान क्या है।
सच तो यह है कि प्रकृति अपने खेल खेल रही है। और हम मात्र कठपुतलियां हैं।
डोर उसकी अंगुलियों में है। लहरें उसकी अंगुलियों के इशारे से उठती हैं। लहरे अंगुलियों का हिलना ही है। कुछ तो थोड़ा हिलता है। कोई पूरा ही घूम जाता है। अंगुलियां निरन्तर यही खेल खेल रही हैं। समझदार वह है, जो सहनशील होकर मात्र दर्शक बन जाता है। हिलते हुए भी अपना हिलना देख रहा है-समझता है।
लहरों का काम नचाना है। यही जानकारी ही समझ है। हम क्या करते हैं ?
हम बचाव करते हैं, हम समझ के स्थान पर सुरक्षा चाहते हैं। इसलिए बचाव के लिए इस विचार को, इस चित्र को, इस रूप को जो उतरा है, जो हटाये नहीं हटता है, जो तनाव देता है, जिसकी स्मृति व्याकुल कर देती है, उसे प्रतिस्थापित करने का प्रयास करते हैं।
यह माला, कीर्तन, नाम, जप योग, ध्यान सब उसी के रूप हैं।
यह जो बाहर हम कोई भी क्रिया करते हैं, वह संघर्ष ही पैदा नहीं करती है, हमें भी बचकाना बना देती है। विरूप कर देती है।
यह बात समझने की है कि तनाव का उपाय, उससे मुक्ति कहीं बाहर नहीं है।
बाहर की क्रिया कभी सहयोग नहीं करेगी।
कुछ करना चाहते हो तो बाहर को छोड़ दो और शरीर को शांत कर दो। शिथिलीकरण  करना समझो। शरीर को भी तनाव मत दो आराम दो।
अब रहा केवल मन।
उसे कैसे रोक सकते हो ? नाम भी तो माया है। यह भी कल्पित है, जप तप ध्यान धारणा सब खेल माया का है।
उपाय है तो यही मन के द्वारा ही मन का तनाव हटाया  जाए। मन का स्वभाव है कल्पना करना, संचय करना, अभिलेख करना, चिन्तन करना। विकार उठते ही मन त्वरित मन गति से चल देता है।
विकार को रोकना भी क्रिया है। लहरों को रोकना भी क्रिया है। जहां तक क्रिया है, तनाव है, वहां प्रतिक्रिया भी है। उपचार है।
मात्र तटस्थ हो जाओ। लहरों का साक्षी भाव से अवलोकन ही सार है, विकार उठने का सिलसिला अपने आप कम होते-होते समाप्त हो जाता है। लहरें उठती रहेंगी, जैसे पत्थर से टकराकर लौट जाती हैं, छोड़ जाती हैं गूंज वही गूंज अहर्निश गूंजती रहेगी, पर मन शांत तटस्थ बैठा रहेगा, प्रतिक्रियाहीन, साक्षी बस।
फिर भटकाव समाप्त हो जाता है। बाहर का सहारा लेते ही प्रकृति के वश की बात नहीं रहती।
सहनशक्ति अन्तर्मुखी होने पर बढ़ती है। किसी से भी बात करो, वह यही कहेगा- नाम जपो, ध्यान करो। कोई यह नहीं कहता कि कुछ मत करो।
सांसारिक कार्य शरीर से जुड़े हैं, जब तक शरीर है- सब होंगे। पर ज्यादा मत उलझो, मन को ज्यादा उलझाना ठीक नहीं है। सम्पत्ति, स्त्री, यश सब की सीमा है। रात दिन लगकर करोड़ों भी कमा लिये, और हार्ट फेल होते ही सब यहां रखा रह जाता है- यह समझ लेना है। मै यह भी नही कहता मत करो, करो जरूर, पर सामर्थ्य का दुरूपयोंग मत करो। संतुलन रखो, सहज रखो, सब करो। छोड़ने और छूटने की ज्यादा चिन्ता मत करो।
अन्तर्मुखी होते ही वर्तमान में रहने का अभ्यास बढ़ते ही सब पता लग जाता है कि विचार मस्तिष्क से नही, उठकर उसका केन्द्र नीचे की ओर आ रहा है।
मन-कंठ, ह्नदय तक संक्रमित होता हुआ नाभि तक पहुंच जाता है। नाभि तक पहुंच कर पुनः हृदय पर आकर ठहर जाता है। नाभि पर ज्यादा टिकने से फिर शरीर नहीं रहता।
इसीलिए कहता हूं, यात्रा नही  है- मात्र डूबना है। वहां जाने का कोई रास्ता नहीं है, सब बाहर की ओर जाते हैं।
पता लगता है, उसकी प्रतीती होती है। संवेदना होती है। प्रतीती कम्पनों में अनुभवों में होती है। सोचने का तरीका बदल जाता है। फिर विकार आते हैं तो भाव दशा की तरह आते हैं।परमहंस की जिस प्रकार नीला आकाश देखते ही सुध बुध खो जाती थी। हां, ज्यों ही कंठ तक मन आता है, स्वप्न भी नही आते। स्वप्न की स्थिति भी दिमाग तक ही है। फिर कोई बात हुई। किसी बात का पता करना है, तो वह स्वप्न में दृष्टान्त रूप में आ जाती है। स्वप्न फिर सहयोगी होकर अपने चाहने पर ही आता है।
पर यहां पलायन नहीं है। अकेलापन नही है, व्यवहार में जीना है। सांसारिक रहना है। अन्तर्मुखी होने पर बाहृा जगत से भी व्यवहार रखना ही पार होने की कुंजी  है। प्रायः अन्तर्मुखी होेने की स्थिति में लोग अकेलेपन में चले जाते हैं। बाहृा को अस्वीकार करते हैं, यही गलती है। जो रोल मिला है, वह तो करना ही होगा। जिम्मेदारियां व्यवहार की निभानी है, यही सार है। यही बात समझ में नहीं आती है। यही शांति है, संसार में रहकर ही संसार की समझ है, और भीतर के संसार की न तो स्वीकृति है, न अस्वीकृति महज साक्षी अवलोकन है। न कोई तनाव है, न कोई दबाव है।

उस पार
मृत्यु और उसके बाद शरीर की क्या स्थिति रहती है, चर्चा इस पर ही हो रही थी। प्रश्न पूछा गया था कि मृत्यु के समय प्राणी को किसी प्रकार की तकलीफ होती है ?
स्वामीजी ने इस पर कहा कि स्वप्न और जागृति की अवस्था में जो अन्तर है, वह मृत्यु के इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। स्वप्न में जागृत की स्मृति नहीं रहती, सब छूट जाता है न कोई परिचय रहता है, न कोई बात याद रहती है। घर, दुनियां और सारी समस्याएं सब यहीं रह जाती हैं। उसी प्रकार स्वप्न से जब आंख खुलती है, थोड़ा जागृति में सपने की दुनियां स्वप्न में देखे गये- यन्त्र, उद्योग, व्यापार रिश्तेदार सब वहीं रह जाते हैं। संसार में जो कुछ प्रत्यक्ष है, वह स्वप्न में जाने के बाद गायब हो जाता है और जो स्वप्न में प्रत्यक्ष होता है, वह जागृति में गायब हो जाता है। तो स्वप्न से जब जागृति में आते हैं, या जागृति से जब स्वप्न में आते हैं तो क्या दुख की अनुभूति प्रतीती होती है ? अगर गंभीरता से प्रश्न पर विचारा जाय तो उत्तर प्राप्त होता है कि न तो जागृत से स्वप्न में जाने में और न स्वप्न से जागृत में आने में दुख का अनुभव होता है। जिस प्रकार आंख खुलने के बाद स्वप्न छूट जाता है, क्षणभर भी दुख नहीं रहता, उसी प्रकार यह मृत्यु की स्थिति है। यहां आंख बन्द होने के बाद जो जागृत स्वप्न है, वह छूट जाता है-क्षण भर भी दुख नही होता। यह बात दूसरी है कि अन्तिम समय बीमारी की अवस्था में शारीरिक कष्ट ज्यादा हो और बिस्तर पर पड़े-पड़े मृत्यु हो तो दुख का अनुभव होता है। परन्तु अगर तुरन्त ही मृत्यु हो जाय तो उसका कोई दुख अनुभव नही होता है। जिस प्रकार आंख खुलते समय सवप्न छूट जाता है, उसी प्रकार आंखों के बन्द होते ही यहां का स्वप्न भी छूट जाता है।
मृत्यु के लिए यह जो कपड़ा बदलने जैसी बात कही गयी है, वह ज्यादा सटीक नही है। कपड़ा बदलने जैसी बात या उसकी जानकारी वहां रहती है- जब तक जानकारी होती है, तभी तक दुख है। मैं मान रहा हूं, यह जानकारी होती है, तब तो बहुत दुख होगा। क्योंकि परिस्थिति वश कोई भी, किसी भी परिस्थिति को छोड़ना नहीं चाहता। मानसिक-अवस्था भी दुख है। सच यह है कि मृत्यु के समय डरते हैं, इससे बड़ा दुख होगा। यह दुख वहां नही हैं।
यह उसी प्रकार की स्थिति है, जब किसी को आपरेशन के लिये बेहोश किया जाता है। बेहोशी की स्थिति में स्मृति नहीं रहती। मृत्यु में डरने जैसी कोई बात नहीं है। वह वास्तव में सुखद ही है और सच तो यह है कि यह छोड़ा नहीं जाता है, छोड़ने में डर लगता है। यह डर उसी प्रकार का है कि हम परिस्थितिवश किसी बड़े घर में मेहमान बनकर जायें और वहां हमारी बहुत खातिर की जाय, हमें बहुत सुविधा मिले तो उससे मन की आसक्ति बढ जाती है। और उसको छोड़ते समय दुख होता है। इसीलिए आसक्ति दुखदायी है। आसक्तियां जुड़ी हुई हैं, इन्द्रियों से और इन्द्रियां जुड़ी हुई हैं मन के साथ। इसलिये वह दुख, जो इन आसक्तियों के कारण से हुआ है, हमें घेर लेेता है।
अगर मन सिर्फ वर्तमान में रहता है, उसका संबंध तब उसी एक विषय के साथ हो जाता है, जिसमें इस वक्त उसका मन है। स्वामीजी कहा करते हैं कि जिस प्रकार मैं बोल रहा हूं तो मेरा मन एक ही इन्द्रिय के साथ संबंध बना लेता है, वह वहां जुड़ जाता है। यहां तक कि प्रवचन के समय मुझे कुछ भी नजर नही आता। इन्द्रियों से संबंध इसी तरह टूटते हैं। जब पांचों इन्द्रियों से टूट जाता है, तब कहा जाता है, मन स्थिर है। यह स्थिति आवश्यक है।
क्योंकि प्रश्न पूछा, आवाज अन्दर गई, तो पूछना पड़ता है, क्या पूछा ?
इसका मतलब यह नही है कि बहरापन बढ गया है, परन्तु बाह्य से संबंध छूट गया है। इसीलिए साधना के अन्तर्गत जो आवश्यक है, वह यह है कि इन्द्रियों का संबंध जो विषयों के साथ जुड़ा हुआ है उसको तोड़ना पडता है। जिस समय जिसके साथ संबंध जोड़ना है, वही जुड़े-यह वर्तमान में रहने की स्थिति है। यहां दुख नहीं है और शारीरिक दुख भी होता है तो उससे मन विचलित नहीं होता है।
यह बात दूसरी है कि मनुष्यों को उनकी मृत्यु पर इतना दुख नहीं होता होगा, जितना कि दूसरे की मृत्यु पर होता है। इसका कारण है कि दूसरे के प्रति आसक्ति अधिक होती है। यहां तक होती है कि कई लोग तो अपना प्राण तक न्योछावर कर देते हैं। इस प्रकार की उनकी भावना होती है।
इसी प्रसंग में स्वामीजी ने अपनी मां की मृत्यु और बकानी के प्रधान- श्री सम्पतराज जी का उदाहरण देते हुए कहा- मेरी मां का जब स्वर्गवास हुआ था, तब मैं बम्बई में नौकरी कर रहा था। मैं घर एक दो घंटे बाद पहुंचा। घर पहुंचने पर मा का शरीर थोड़ा गरम था और उनकी आंखे मुंदी हुई थी। मैं समझ नहीं पाया था, मैंने आवाज दी, हाथ हिलाया, तब मेरी भाभी ने कहा- अब क्या रखा है ? तब पता चला कि वह मर गयी है। यह तब ध्यान आया कि उस वक्त अगर उस होता तो शायद मैं यह अनुभव करता कि अन्तिम घड़ी कैसे आती है ? यह अनुभव मुझे श्री सम्पतरामजी की मृत्यु के समय हुआ। वे उस दिन बकानी में एक मीटिंग में भाषण दे रहे थे- बोलते-बोलते झुक गये थे, जहां उनका सिर आ गया था, मैं वहां बैठा था, और मैंने देखा कि अचानक उनका सिर मेरी गोद में आ गया है। मैंने अपना हाथ रखा। उन्होंने दो बार गहरी सांस ली। मेरा संकल्प था, अगर मैं अपनी मां की अन्तिम स्थिति में उनके पास होता तो मैं जान पाता कि मृत्यु का क्षण कैसा होता है। और उस वक्त मैंने देखा कि मृत्यु के क्षण को अपनी आंखों के बिल्कुल सामने देखा। इन्द्रियों का और विषयों का तथा मन का संबंध बिल्कुल छुट गया था। मुझे तुकाराम का एक अभंग याद आ गया, मैंने अपनी आंखों से अपनी मौत को देखा और यह इसी जीवन में संभव है। जब इन्द्रियों का विषयों का साथ, जो संयोग है, वह छूट जाये। तभी सन्त कवियों ने जिसे जीवित मृतक का अंग कहा है, यह संभव हो जाता है- यही वास्तविक स्थिति है। मनुष्य सम्पूर्ण कार्य व्यवहार करता रहे और उसकी इन्द्रियां विषयों के साथ संबंध छोड़ दें।
इसीलिये सच तो यह है कि मृत्यु के समय किसी प्रकार का कोई भय नही रहता, और न कोई बड़ा दुख स्वयं को होता है। मृत्यु से जो लोग डरते हैं, वे लोग यह अनुभव कर रहे हों तो फिर भय नहीं रहता। सच तो यह है कि कोई अपनी वर्तमान स्थिति को छोड़ना नहीं चाहता। आसक्तियां इतनी प्रबल है कि मनुष्य उनके घेरे में घिरा हुआ है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि वर्तमान में रहा जाय-यही एक मात्र रामबाण उपाय है, इसके अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है। इससे आसक्तियां धीरे-धीरे कम हो जायेंगी, प्रयास कम नहीं होगा।
स्वामीजी इस स्थिति को समझाते हुए प्रायः कहा करते हैं कि मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि प्रेम तो मेरा कम नहीं होता, पर किसी के साथ कोई घटना होती है तो मुझे दुख नहीं होता। यह भावना दृढ़ रहती है कि दुख का होना अनिवार्य है और मन के लिये सहनशील होना है।
आसक्ति और प्रेम में गहन अन्तर है। आसक्ति किसी एक विषय के रस में विद्यमान रहती है। मन को उलझाये रखती है, मन उसमें रमा रहता है और वह प्रेरित करती  है, मन को यह कार्य करना है- उसे गहन सन्तुष्टि मिलेगी, सुख प्राप्त होगा। आसक्ति कामनाओं की जनक है। मोह स्वार्थी होता है। मनुष्य खुद इसलिए दुखी नहंी होता कि दूसरे को दुखी देखकर उसे भी दुख प्राप्त होगा। इसलिए वह दूसरे को दुखी नहीं देखना चाहता। उसका दुख वह सहन नहीं कर सकता-यह मोह है। मोह में स्वार्थ की भावना छिपी रहती है। प्रेम इन दोनो से श्रेष्ठ है।
और इसे ”विस्तृत प्रेम” कहा गया है, जिसकी पहचान सिर्फ आकर्षण है। जिसके लिए यह कहा जाता है कि परमात्मा ही प्रेम है, वहां बस, त्याग की भावना रहती है। वहां तो केवल प्रेम के लिए प्रेम ही कहा गया है- वहां किसी से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं है। त्याग की भावना बनी हुई है। जो प्रेम करता है, वह अपनी भौतिक वस्तुओं का ही त्याग नहीं, वरन अपनी आध्यात्मिक साधना का भी त्याग कर देता है। इसलिए कहा गया है कि उस प्रेम को पाना चाहते हो, जो प्रेम ही परमात्मा का द्वार है तो सिर्फ वर्तमान में रहना सीखो और पहले आसक्तियों को कम करो। यही उपाय है कि वर्तमान में रहा जाय- आसक्तियां स्वतः कम हो जाती हैं। वर्तमान में रहते ही समझ स्वतः उत्पन्न हो जाती है, जिससे विवेक का स्पर्श प्राप्त होता है। समझ स्वयं को पहचान सौंपती है। यहां पर आसक्ति का रूपान्तरण नहीं है और न आसक्ति का प्रतिस्थापन ही होता है। गलत बात की जगह अच्छी बात को बनाने की जगह अच्छाई का यह आरोपण नहीं होता, वरन यहां आसक्ति अपने मूल रूप में जिस प्रकार की है, स्वतः दिखाई पड़ जाती है। एक गहरी जागरुकता, एक गहरी सतर्कता जो साक्षी ध्यान से प्राप्त होती है, वह समझ सौंपती है कि आसक्ति अपने रूप को खोलकर अपने आपको पूर्ण प्रदर्शित कर स्वतः उपस्थित हो जाती है। अतः वर्तमान में रहना ही साध्य है और यही साधना है।
वर्तमान में रहने से इन्द्रियां भी होगी, विषय भी होंगे और मन भी होगा। लेकिन जहां जो कार्य है, वह सबकुछ वहीं जुड़ा रहेगा, और जब कोई कार्य नही है तो संबंध स्वतः टूटा सा रह जाता है। कोई अच्छा या बुरा सामाजिक दृष्टि से होता है। जो वर्तमान में रहता है, वहां अच्छा बुरा नहीं होता। क्योंकि क्षण-क्षण परिवर्तित है और क्षण अधिक बहुमूल्य है। लेकिन यह भी सच है कि बीत जाने पर वह क्षण अपना अर्थ खो देता है और बीते हुए क्षण की स्मृति ही सबसे बड़ा पाप है। मन बराबर उसी के लिए प्रेरित करता है, और उस बीते हुए क्षण में जाना चाहता है। अच्छे कार्य की स्मृति बनी हुई है, तो मन को जब यह मौका मिलेगा तो वह उसी काम के लिए प्रेरणा पाकर के इन्द्रियों को प्रेरित करेगा। इसीलिए कहा गया है कि अच्छे कार्य के लिए भी  असक्ति होती है।
इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छे काम मत करो। बुरे काम की अपेक्षा अच्छा काम उससे बेहतर है, पर अच्छा काम भी करो तो उसकी स्मृति मत रखो। स्मरण मत रखो, यह काम, अच्छा काम उसने ही किया है, इसलिए कहा गया है- इन दोनो से परे रहो, दोनो स्थितियों से परे रहो, और कर सकते हो तो यह करो- स्मृति के साथ असहयोग रखो, और पाप कहीं है तो यह ध्यान रहे-स्मृति है, यही सबसे बड़ा पाप है।
और तब प्राप्त होता है- सच्चा प्रेम, विस्तृत प्रेम, यह परमात्मा का स्वरूप है। कहा जाता है कि चुम्बक लोहे को खींच लेता है, शक्ति चुम्बक में होतेी है कि वह लोहे को आकर्षित कर लेता है। पर सच तो यह है कि चुम्बक लोहे को खींचता नहीं है, वह लोहे में अपना विपरीत ध्रुव तैयार कर देता है, वह लोहे को खीेंचता नहीं है, लोहे को अपनी तस्वीर दे देता है, लोहे को अपनी तासीर दे देता है। वह उसमें अपना विपरीत रूप पैदा कर अपना आकर्षण उसमें सौंप देता है7 यही प्रेम है, यही प्रेम का स्वरूप है। यहां त्याग मात्र भौतिक वस्तुओं का नहीं, अपनी-अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों तक का हो जाता है। यहां पारस लोहे को सोना नहीं बनाता है, पर एक चुम्बक दूसरा नया चुम्बक पैदा कर देता है।
अन्तिम अवस्था तक कौन सी आसक्ति शेष रह जाती है, इस प्रश्न के उत्तर में स्वामीजी कहा करते हैं मनुष्य के भीतर सबसे प्रधान आसक्ति काम की है, यह जन्मजात है और निरन्तर रहने वाली है। यह स्वाभाविक क्रिया है, इसका कभी खंडन नहीं होता।
सैक्स और स्वाद दोनों का मनुष्य के जीवन में अन्तरंग संबंध है। अन्तिम समय तक स्वाद और सैक्स से छुटकारा नहीं हो सकता, यह सच है। वासना तो काम की हो सकती है, लेकिन कोई यह कहे कि उसे इससे छुटकारा मिल गया है, यह गलत ही होगा। वासना से बचने के लिए एक ही स्थिति है, जिसे तितिक्षा की साधना कहा गया है। भगवान ने जो अर्जुन से कहा है- तान तितिक्षस्व भारतः यही मार्ग है। अर्जुन से यही कहा है- सहन करो, यह नहीं कहा- छुटकारा पा लो। उसके वेग को सहन करो, छुटकारा सहन नहीं है।
छोड़ो मत। छोड़ने का प्रयास मत करो। उसे आज तक कोई छोड़ नहीं पाया। उसे सिर्फ सहन करो, बर्दाश्त करो।
इस संसार में रहकर वृत्तियों के आघात होना अनिवार्य है। शरीर क्षणिक है, हमारी इन्द्रियां कमजोर हैं, और लहरों का आघात शक्तिशाली है। अनवरत हो रहे हैं, प्रतिक्षण लहरों के धक्के चित्त पर लग रहे हैं, और चेतावनी दे रहे हैं। जिसमें जितनी क्षमता है, जिसकी जैसी बनावट है, और बुनावट है- वह उतना ही प्रभावित हो जाता है। हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से प्रभावित हो रहा है। लहर प्रतिक्षण हमें धक्का दे रही हैं, यह तो अनिवार्य है- हमें उसे सहन करने की शक्ति आनी ही चाहिए। यह तो अनादि काल से चलता आया है, हमें उसके वेग को सहन करना पड़ेगा। हम यह चाहें कि हम उन्हें छोड़ दें, यह हो नहीं सकता। वर्तमान में रहने से लाभ, सहनशीलता प्राप्त होती है और यह सहनशीलता हमें वह शांति उपलब्ध कराती है जहां वृत्तियांे की पहचान सहज है और स्पष्ट है। जो हमें प्राप्त कराती है, एक तटस्थता, ताकि अन्त में सांसारिक चीजों से मोह नहीं जुड़ता। यह उसी प्रकार से है, जैसे कि लहरें पत्थर से टकरा करके लौट जाती हैं। हम तटस्थता के साथ निर्वाह कर, उसके आवेग संवेग को देखते रह जाते हैं। प्रभावित नहीं हो पाते।
यह उसी प्रकार से है- एक के बाद एक लहर उठ रही है। अभी क्रोध की उठी, फिर लाभ की उठी, फिर संग्रह की उठी, और यह लहरें नाभि पर टकराहट देकर स्पंदन छोड़ जाती हैं। यह स्पंदन नाभि में वृत्तियां जगा देता है। कई बार क्रोध की लहर उठती है तो लाखों को क्रोध आता है। पर इस क्रोध की प्रक्रिया हर व्यक्ति में अलग-अलग होती है।
कठिनाई यह है कि आप अपने आप को एक अलग शरीर मान बैठे। हम यह मानकर चल रहे हैं कि हम अपना पक्ष एक अलग इकाई हैं और दूसरे से कोई संबंध नही है। यह उसी प्रकार से है- जैसे कि पेड़ की एक पत्ती यह कहे कि उसका दूसरी पत्ती से कोई संबंध नही है। और पत्ती यह नही जानती कि वह रस तनो से लेती है, और तना यह जानता है कि उसे रस जड़ से प्राप्त होता है और जड़ को रस इस धरती से मिलता है। उसी प्रकार से है, जैसे कि इस शरीर में खून के कीटाणु, जो अलग अलग हैं-यह कहें कि हमारी अलग सत्ता है, और जब कि हम यह जानते हैं कि शरीर सब रक्त के कीटाणुओं से मिलकर बनता है। एक सेन्टीमीटर के इलाके में लाखों कीटाणु होते हैं, तो पूरे शरीर में जो कीटाणु हैं, उनकी संख्या क्या होगी ? कीटाणु भी अपने आप मे इसका जीव है, तो इस प्रकार यह पूरा शरीर ही एक है, और उसमें कीटाणुओं की जो सत्ता है उसी प्रकार करोड़ों अरबों मनुष्य की सृष्टि एक ही है, सबको पोषण उसी से मिलता है। जिस प्रकार ज्वर आने पर पूरे शरीर में व्याप्त हो जाता है, जहर पूरे शरीर में फैल जाता है, उसी प्रकार जो भी एक लहर प्रकृति की उठती है- लाखों करोड़ों मनुष्यों को एक साथ विकारों को जागृत कर देती है। जिस मनुष्य की जैसी भावना होती है, जिस प्रकार की उसकी बनावट होती है- उसके ह्नदय में उसी प्रकार से भावना जागृत हो जाती है। और अगर मनुष्य वर्तमान में है, तटस्थ है, वह जगा हुआ है तो वह प्रभावित नहीं होता। बाहृा उसके भीतर प्रवेश नहीं करता और भीतर जो है, उसके प्रति उसकी समझ जो उसे शांत विचार से प्राप्त हुई है, वह जागरूकता सौंप देती है, जो कि मनुष्य के लिये सर्वाधिक आज की आवश्यकता है।                               
प्रयत्न
हमारा इस संसार में आने का क्या उद्देश्य है, और जो हम प्रयत्न करते हैं, उसकी क्या सीमा है ? चर्चा का विषय यह था।
स्वामीजी: मनुष्य को प्रकृति ने कर्म करने का अधिकार दिया है, ताकि उसकी लगन बनी रहे। शरीर क्षणिक है- किसी भी समय बुलावा आ सकता है। किसी भी क्षण शरीर छूट सकता है। यहां कितना भी विकास किया जाए, कितना ही प्रयास करो- प्रकृति में क्या फर्क पड़ता है ?
सभी नष्ट हो जाता है।
मनुष्य को करने की स्वतन्त्रता है। करते जाओ, करते जाओ। अनुभव भी यही दृढ़ होता रहता है। यह सब मेरे करने से मुझे प्राप्त हुआ है। अनुभव सघन होता चला जाता हें सृष्टि में तो कोई फर्क नहीं पड़ता हैं
एक दिन सब साफ हो जाता है।
एक प्रयोगशाला आज बनायी, कल दूसरी, कल एक नया कारखाना, फिर दूसरा, बनते-बिगड़ते सब रहते हैं। कभी एक धक्का लगता है- पूरा शहर साफ हो जाता है।
यही सृष्टि का नियम हैं।
इसके लिये बहुत अधिक उलझना, आपाधापी करना, अपनी महत्वकांक्षाओं के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाना उचित नहीं है। मनुष्य को इतना ही करना चाहिए कि जब तक हम है हम अपना जीवन सुख और शांति से बितायें। उस शक्ति के साथ जुड़कर यह अनुभव करना है कि सृष्टि के अपने नियम हैं, वह अपने नियमों से चलती है- यही नाटक है। आज जो हमारी व्यक्तिगत इच्छा है, उस स्थिति में पहुंचने के बाद समष्टिगत हो जाती है। वह स्वयं सागर हो जाता है। बूंद जब सागर से मिल जाती है, तब उसे एहसास खुद हो जाता है कि वह सागर से अलग हैं ?
आज आदमी आदमी के बीच तनाव है।
झगड़ा है, आपाधापी है। हर घर, हर परिवार में कष्ट हैं, दुख है हिंसा हैं।
कारण है, हर व्यक्ति अपने आपको अलग मानता है। जब मैं अपने-आपको अलग मानता हूं, तब तक ही मैं शत्रु हूं।
तब तक वह जान जाता है कि वह भी नाटक का ही पात्र है, और उसे भी बस नाटक में भाग लेने के लिए उसी ने तैयार किया है। तब इस भावना में, उस भावना में कितना अन्तर है। जितनी हमारी बुद्धि है, जितनी हमारी क्षमता है, उतनी ही ग्रहणशीलता होती है। कर्त्तव्य भावना की जागृति उतनी ही रहती हैं।
हमें यह जानना होगा कि हमें यह जो मिला है, उसके पीछे अभिप्राय है। अभिप्राय- संस्कार है, वासनाएं है। संस्कार की पहचान अपेक्षित है, वांछनीय हैं वहीं वासनाओं का संग्रह है, भंडार है।
इसीलिए जब तक शरीर है, तब तक कर्म भी आवश्यक है। अतः जो होना है, वह यह प्रयत्न होना है कि वासनाओं का भंडार रीत जाए-खाली हो जाए।
जैसे-जैसे वासनाएं कम होती जाती हैं, हम उस शक्ति के साथ जुड़ते जाते हैं। फिर वही कार्य, जो प्रकृति चाहती है- इस शरीर के द्वारा होता रहता है।
यही सहज कर्म होता है।
बाहृा परिवेश यहां प्रभावित नहीं करता है। फिर यहां किसी को राजी-नाराजगी का सवाल नहीं है। दूसरों की इच्छा से हम नहीं चलते है। जरुरी कार्य अपने आप हो जाता है। सच तो यह है कि हम सब अपने साथ अपनी अपनी दुकान लाए हैं, प्रयत्न यही है कि दुकान खाली हो जाए।
अब तो जितना किराया जमा है, वह जब तक का जमा है, तब तक दुकान रखनी पड़ेगी- तब तक रहना होगा। रामकृष्ण परमहंस इसे काली का आदेश मानते थे। जब तक काली की इच्छा है, उसे कार्य करवाना है- वे रहेंगे। जब तक उस महान शक्ति की इच्छा है, उसे जो कार्य करवाना है- शरीर तब तक रहेगा।
जिस क्षण आवश्यकता नहीं होगी, वह नहीं होगा।
प्रश्न क्या नाटक में चयन की स्वतन्त्रता है ?
स्वामीजी हां, स्वयं की है।
यानी जो नाटक स्टेज पर होता है, और जो यहां होता है, उसमें थोड़ा अन्तर है। स्टेज पर स्वतन्त्रता नहीं है। वहां वही करना है, जो दे दिया गया है। यहा स्वतन्त्रता है।
मनुष्य को इस स्टेज पर अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार है। वह कितना भी करेगा, उसे प्रकृति के लिए क्षणभर में मिटाने में देर नहीं लगेगी। प्रकृति ने इतनी सी छूट दे रखी है। यह घोड़ा है, यह मैदान है, तुम इसे अपनी मर्जी के अनुसार चलाओ। पर वह समझता है, घोड़ा मेरा है, मैदान मेरा है, मैं मर्जी का मालिक हूं। जो कुछ हो रहा है, मेरी ही सामर्थ्य है, मैं शक्तिमान हूं।
वह यह नहीं जानता है कि जो सफलता मिली है, वह प्रकृति की इच्छा से ही है, उसकी ही इच्छा से स्वतन्त्रता है। प्रकृति जब देखती है कि वह हद से बाहर हो गया है, वह समाप्त कर देती है।
यहां प्रश्न इस बात का नही है कि जो भूमिका मिली है, वह छोटी है या बड़ी, हम हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका का ही चयन चाहते है।
रामकृष्ण परमहंस बड़े संत थे। उन्होंने बहुत त्याग किया। यहां तक कि अपनी पत्नी को भी त्याग दिया। सारा जीवन सत्य की खोज में लगा दिया। वे काली की शक्ति चाहते थे। शक्ति तो मिली, पर यह भी पता लगा कि इस स्टेज पर तुमको फल तो मिलेगा, पर उपयोग नही कर पाओगे, तो उपयोग के लिए दूसरों को ढूंढना पड़ा। शक्ति का सदुपयोग विवेकानन्दजी द्वारा हुआ।
प्रकृति शक्तिशाली है। उसने मनुष्य की आयु भी तय कर रखी है। शरीर पंच महाभूतों से बना है। शरीर में इन महाभूतों का जरा भी संतुलन बिगड़ा- विकृति आ जाती है। आप बाहर से कितनी ही दवाएं खाएं, कितने ही बड़े चिकित्सक रख लें- विकृति का इलाज नहीं है।
मनुष्य की सारी सत्ता, महत्वकांक्षा, प्रयत्न सब प्रकृति की दी गई छूट के भीतर ही रहता है।
और इसी परिधि में वह कहता है- यह मैं कह रहा हूं, यह मैंने किया है, यह मेरा है, मैं ही सब कुछ हूं।
करना यही है- प्रकृति के नाटक को ध्यान में रखते हुए, परिस्थिति को बदस्तूर चालू रखते हुए, यह ध्यान रखना कि यह जो कुछ हो रहा है- असार है। व्यवहार निभाते हुए यह ध्यान रखना है कि मैं बस, निभा रहा हूं, और मेरा कोई भरोसा नहीं है।
प्रश्न क्या यह भय की स्थिति नहीं हैं ?
स्वामीजी नहीं, भय वही है, तभी तक है, जब तक यह विश्वास है कि हम अपने आप को बचा सकते हैं, यह विश्वास रखना चाहिए कि अनिष्ट तो होगा ही नहीं- और जब होना है, तब होकर ही रहेगा। तो उससे निर्भयता आ जाती है। मन को निश्चलता मिल जाती  है कि जो कुछ भी होने वाला है, वह तो होगा ही- हमें इस बीच अपने कार्य को करते रहना है।
हां, सीमित ही स्वतन्त्रता है। नाटक में कितने ही बड़े बन जाओ, अभिनेता बन जाओ, नेता बन जाओ, सेठ बन जाओ, संत बन जाओ- पर अन्त में सब छूट जाता है, सबका नाश हो जाता है। यह जानकारी होने के बाद फिर ज्यादा प्रपंच में मनुष्य नहीं पड़ता।
इतने महान साम्राज्य स्थापित हुए। बड़े-बड़े सम्राट हो गए। कहां गए सब खण्डहर ही खण्डहर रह गए है, उनके नाम तक नहीं रहे। ब्रिटिश साम्राज्य का पतन हमारे ही सामने हुआ है। अब वह भी अलग-अलग होने को जा रहा है। जब बढ़ने का वक्त आया, कितना बढ़ गया।
इसीलिए कहा जाता है कि यह अहसास हो जाना चाहिए कि हमारी सीमित स्वतन्त्रता है। हम कुछ नहीं कर सकते, वास्तविकता यही है। इसीलिए कर्म अवश्य करो। प्रयास अवश्य करो- जो होना है, होता रहेगा, प्रयास मत छोड़ो।
बात बिल्कुल स्पष्ट है।
पर हम स्पष्ट नहीं है, मतलब की बात पकड़ लेते है। बाकी छोड़ देते हैं। इस प्रकार काट छांटकर अपना रास्ता बना लेते हैं। वही गलत है। जो असार है, जिसे हम सही नहीं मानते, उस प्रपंच में पड़ना भी उचित नही हैं।
जीवन का निश्चित उद्देश्य है। हमें अपना जीवन व्यवहार कुशलता के साथ, नैतिकता के साथ जीना है। यह उचित नही है कि छीना झपटी करें। दूसरों को सताएं। नैतिकता बनी रहे। दूसरों का अधिकार नहीं छीनें। अपना प्रयास करते रहें। अगर हम सही है, हमारा प्रयत्न सही है, तो व्यवहार कुशलता और नैतिकता अपने आप आ जाती है।
जहां तक पहुंचना है, पहुंच जाते है।
आवश्यकताएं, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अपने आप पूरी हो जाती हैं। यही जीवन का उद्देश्य है।
जब तक हम जीवित हैं सुख से रहें, शांति से रहें।

चेतना और जागरुकता
प्रश्न कांशियसनेस तथा अवेयरनेस शब्द अंग्रेजी भाषा के हैं। प्रचलन में है, आपने इन्हें किस रूप में व्यक्त किया है, तथा क्या अवेयरनेस ही अन्तिम अवस्था होगी ?
सवामीजी आज जिसे कांशियसनेस कहते हैं, वह चेतनता है, चेतना भी कह सकते है। वह व्यक्तिपरक है। यह जो जानकारी है कि शरीर का संस्कार से संबंध है, उसकी जागृति बनी रहती है, और यह धारणा जब इकाई में होती है, इकाई के रूप में होती है, तब वह चेतना कहलाती है।
लेकिन उससे परे जाकर मैं मौजूद तो हूं, अनुभव भी कर रहा हूं कि स्वतन्त्र नहीं हूं। उस महान शक्ति का पुर्जा हूं। इस प्रकार की भावना जब बनी रहती है, वह अवेयरनेस कहलाती है। उसे जागरुकता कह सकते हैं। जागृति कह सकते हैं। सजगता कह सकते हैं। यहां यह जानकारी कि शरीर का संसार से जो संबंध है, उसकी जागृति अनवरत बनी रहती हें
चेतना में परिस्थितियां जो घर कर गई हैं, शरीर की, मन की जानकारी रहती है। उससे मतलब होता है कि इकाई में रहते हुए भी उस महान शक्ति से अलगाव बना हुआ है। परन्तु जो जागरूकता की स्थिति है, वह अलग हटकर है। मैं स्वतन्त्र हूं, इस प्रकार की भावना वहां नही है। यहां वही प्रतीती रहती है कि वह मात्र एक पुर्जा है। प्रकृति नाटक करा रही है। अनादि काल से चला आ रहा है। उसका काम है बनाना-बिगाड़ना। कोई उपयोगिता नही है। कोई उपलब्धि नहीं है। यहां सिनेमा के पर्दे पर सब नाच रहे हैं। और इसका संचालन वहां से हो रहा है- यह जानकारी रहती है। परन्तु हम भी नाच रहे हैं, हम दूसरों को भी साथ-साथ नाचता देख रहे है। पूरा नृत्य दिख रहा है, यही जागरुकता है।
जब तक शरीर है, तब तक चेतना  भी है। चेतना पूरे शरीर में व्याप्त है। शरीर और मन हर अवस्था में रहता है। जब तक चेतना रहती है, जागरुकता भी रहती है।
इस जागरुकता को अस्तित्व भी कह सकते हैं-यही अन्तिम अवस्था है। चेतना तब तक रहती है, जब तक यह जागरुकता में विलीन नहीं हो जाती, और जागरुकता जब तक चाहती है, तब तक चेतना रहती है। या यूं कहिए, कांशियसनेस तथा अवेयरनेस, जब तक अवेयरनेस की इच्छा होती है, शरीर को बनाये रखने के लिए दोनों रहते है।
दरअसल भ्रम यहीं से होता है कि जब भाषा के क्षेत्र में समझाने का प्रयास होता है। यह समझाने का विषय नही है। कांशियसनेस तथा अवेयरनेस दोनों का भाषा में अर्थ - चेतना, चेतनता होता है। पर जैसा कहा है- अवेयरनेस चेतना नही है, यह अस्तित्वानुभूति है, जागृति है। जागरुकता है। बूंद जो उसका यह अहसास तो है कि वह बूंद है, पर उसी समुद्र का अंश भी है। यह जानकारी भी है। तब पार्थक्य चला जाता है, अलगाव चला जाता है- यही जागरूकता है।
इस बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि  एक आदमी दो मंजिले मकान में रहता है, और उसे कोई बुलाने आता है- वह ऊपर की मंजिल पर रहता है, आवाज लगते ही वह नीचे आता है और बात करके पुनः वापिस ऊपर चला जाता हैं।
जागरुकता की जो स्थिति है वह चेतना के धरातल पर आकर कार्य व्यवहार करती है। पुनः वही स्थिति रह जायेगी। कभी इस स्थिति से चेतना के धरातल पर अपनी इच्छा से आना होता है, कभी जो बसी जागरुकता की, इसी अवेयरनेस की कृति है-उनके लिए आना होता है, व्यवहार करना होता है-यही साक्षात्कार हैं।
इस अवस्था में इच्छा नहीं रहती है। मन तो खाली है। इस अवस्था में शून्य रहता है। किन्तु आवश्यकता होने पर मन सक्रिय हो सकता है। पर मन रहेगा जरुर। वहां जाने के बाद लहरों का पता चलता है। लहरें आती हैं, टकराती हैं-पर क्रिया नहीं होती, और जागरुकता में रहने के बाद, अवेयरनेस में होने के बाद यह स्थिति भी नहीं रहती है। उसका वर्णन नहीं हो सकता।
आदत तो शरीर के साथ जुड़ी हुई है। वह तो बार-बार बनी रहेगी। वहां तो पहुंचे और न पहुंचे हुए दोनो के साथ रहती है। यह शरीर के साथ जुड़ी है, इसीलिए शरीर की जो भी  आवश्यकताएं होंगी, सभी रहेंगी। पर यहां मन नहीं होगा।
यह तान्त्रिक अवस्था नहीं है।
वह एक जिम्मेदारी समझकर अपना कार्य करता रहेगा। उद्देश्य की शर्ते प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत रहेगी। सामर्थ्य के बाहर नहीं जाता, नहीं जाना चाहता है। उस अवस्था में नियमों की पालना रहती है। नियमों के बाहर नहीं जाया जाता। सुख शांति मन की स्थिति है। आनन्द उसके बाद की स्थिति है। धीरे-धीरे वह एक ऐसी स्थिति में चला जाता है, जहां आनन्द के पार भी जाना होता है।
आनन्द की अनुभूति का वर्णन नहीं हो सकता। जहां तक मन है, वहीं तक भाषा है। मन जब नाभि में पहुंच जाता है, उस स्थिति में छोटे बच्चे को जो गुदगुदी के समय संवेदन होते हैं, जिन्हें वह सहन नहीं कर पाता है- खिलखिलाता रहता है। यह इसी प्रकार की स्थिति है। यह अनुभूति अनवरत बनी रहती है।
यहां दुख नहीं होता।
मन की आदत बाहर जाने की है। चक्कर लगाने की। वह गति अब रूक जाती  है। वह एक जगह स्थिर होकर पड़ा रहता है। आवश्यकता हुई तो यह काम आ सकता है। बाह्य जगत से जब संबंध बनाये रखना होता है, तब उसकी जरुरत होती है। जहां संबंध जुड़ने का होता है, वह तुरन्त जुड़ जाता है। तब अनावश्यक भटकाव नहीं होता है।
साधारणतया जो भटकाव होता है, वह वहां नहीं होता। इसीलिए जो यह कहते हैं, मन मर जाता है, वह उचित नही है। मन मरता नही है। मन को मारना, उसका विरोध करना, यहां नही होता है। मन मर गया तो शरीर कहां रहेगा ? सही तो यह है कि यहां मन निष्क्रिय हो जाता है।
इस स्थिति में न तो बंधन है, न मोक्ष।
स्वप्न में पचासों चित्र एक साथ दिखते हैं। एक तो आता नही। नहीं एक अलग-अलग होता है, मुक्ति है नहीं। एक चित्र कभी अपने-आपको अलग कर सकता है ? मिटेंगे तो पचास चित्र एक साथ मिटेंगे। एक कभी मिट नहीं सकता। यह जो मुक्ति की मान्यता है- मात्र मान्यता ही है, और कुछ नहीं। अन्तिम पड़ाव अवेयरनेस का है। जागरुकता का है, जागृति का है, आप कुछ भी दे दो- यहां अलगाव नही है, पार्थक्य नही है। बूंद को अनवरत यह अहसास है कि वह समुद्र है।

एक यात्रा
स्वामीजी से निजी जीवन पर हुई बातचीत के अंश
हम  नानाजी के यहां रहते थे। नाना, नानी और मामा भी थे। बड़ी बम्बई की चाल थी।
नीचे एक बाई बैठकर बीड़ी बनाती थी। उसके एक बच्चा भी था। नानी ने कह रखा था- उसके साथ खेलना मत।
मेरा तब बचपन था। विल्सन स्कूल में पढ़ता था। वहां सभी जाति के सभी धर्म के लोग पढ़ते थे। कोई भेदभाव नहीं था।
मैंने यही सोचा कि वह निम्न जाति का होगा, तभी मना कर रखा है।
एक दिन बाई बीमार हो गयी थी। वह नीचे अपने कमरे में लेटी हुई थी। कराह रही थी, सोचा बुखार होगा। चाल में सभी ऊपर से जीने से नीचे आकर चले जा रहे थे। सभी ने उसको देखा होगा, पर कोई नहीं रूका था। वह प्यास से छटपटा रही थी। वह होठ से पानी मांग रही थी।
मैं भी नीचे उतरा। मैंने उसे प्यास से छटपटाते हुए देखा। मैं उसके कमरे में गया। उसने इशारा किया, मैंने लोटा लाकर मांजा, और पानी भरकर उसके पास रख आया।
फिर स्कूल चला गया।
स्कूल से लौटा तो घर में घुसते ही नानी ने टोका- खबरदार, बाहर बैठे रहो।
मै समझ गया- किसी ने देख लिया होगा, शिकायत कर दी है।
नानी कह रही थीं- नाना आयेंगे, तब पता चलेगा, क्या किया है ?
नाना आये, उन्होंने नानी से बात की। फिर मुझसे बिना पूछे जोर से थप्पड़ लगाए, पिटाई करी।
मैं समझ नहीं पाया, मेरा क्या अपराध था ?
नाना तीन-तीन घंटे पूजा करते थे। भजन, कीर्तन, ध्यान लगाते थे। इतने धार्मिक थे।
इतने ज्ञानी, पर क्रोध क्यों नहीं गया ?
बचपन में सवाल उठ खड़ा हुआ, और मैं इसी सवाल से जूझता रहा।
बचपन में स्कूल में पढ़ा था, जनसेवा, हरि सेवा, क्या सिद्धान्त मात्र कहने के लिए ही होते हैं ? जो व्यक्ति घंटों साधना करते हैं, वे क्रोध क्यों नहीं कम कर पाते ?
बचपन से ही मन संसार से हटने लग गया था।
पहले भक्ति में गया। राम-राम अखण्ड जप प्रारम्भ हुआ।
नौ दस साल की उम्र रही होगी। तभी इन्जीनियर साहब मिले। वे रिश्तेदार थे। उन्होंने सबसे पहले रास्ता दिखाया। उन्होंने बचपन में पूछा था- क्या बनोगे।
मैंने कहा था सन्यासी।
उन्होंने सलाह दी- सन्यासी को सबसे बड़ी जरुरत अन्न और वस्त्र की रहती है। ये दो चीजें तंग करती हैं। अभी से इनकी जरुरतों को कम करो।
तभी से मीठा खाना छोड़ दिया। भोजन कम खाना शुरू किया। फिर कम बोलना, आलोचना से मन चला गया। यह बात तभी मालूम हो गयी थी- मनुष्य सबसे अधिक जवान से ही बुरा करता है। इस प्रकार ज्यादा बोलना तथा स्वाद की रूचि मेरे मन से तभी चली गयी थी।
फिर हनुमान साधना की, शिवजी की की।
तभी एक दिन बैठे बैठे विचारधारा रूक गई। यह अनुभव नया ही था। इंजीनियर साहब से मिला।
उन्होंने रास्ता दिखाया, तब समझाया। अवलोकन की क्रिया बतलाई तथा निर्विचार में रहने का अभ्यास समझाया।
तब मैं मैट्रिक में था।
तो एक दिन अचानक बैठे-बैठे अपने आप विचारहीनता आ गई। अपने आप सब बन्द हो गया।
कुछ क्षण बाद ह्नदय पर हाथ रखते हुए- वहां से वहां यह हो रहा है, हल्की हल्की लहरें उठती हुई महसूस हुई। मन की गति जो बाहर थी, वह सीमा में आ गई थी।
हलचल सी महसूस हुई।
लग रहा था, तरंगे ही तरंगे हैं, जो उठ रही हैं, और मैं बस गवाह हूं। यह सन 32 की बात होगी।
उसके बाद मन में शांति अनुभव होने लगी।
मैं खूब पढ़ता था। पर सदा यही ध्यान रहता था- विचारों को कम करना है। यह ध्यान आते ही विचारों में अपने आप परिवर्तन होने लगा। सहनशीलता बढ़ने लगी।
कभी-कभी जो मै सोचता था, वही होने लग जाता था। अचानक ही लोगों की भावना बढ़ गई। आदर सत्कार बढ़ने लग गया था।
तब यह अनुभव होने लग गया था कि इस साधना में कुछ शक्ति है।
बचपन से यहां तक आने में कई साल लग गए। स्कूल भी जाना था। पढ़ाई भी करनी थी। घर का भी कार्य करना था। मुझे इंजीनियर साहब ने एक ही बात बतायी थी नहाने धोने, आसन तथा समय की पाबन्दी के चक्कर में मत पड़ना। इससे जब यह सब करोगे, तब तो मन लग जायेगा, और बाद में मन इधर-उधर जाता रहेगा।
जो करना है, वह हमेशा करना करना है चौबीस घंटे होना है। इसलिए रात को सोते समय करने का अभ्यास उन्होंने  ही बताया। उन्होेने ही कहा था शरीर से जो क्रिया होती है, उससे शरीर मुक्त नहीं हो सकता। संसार से व्यवहार करते हुए भी- संसार से पृथक रहना है।
”कमलवत” यही सार है।
इस स्थिति में संसार में रहने से ही वास्तविक स्थिति प्राप्त होगी।
फिर मैट्रिक में जो अनुभव हुआ था, उसके बाद विश्वास दृढ़ होता चला गया।
अभ्यास चलता रहा।
फिर इण्टर किया।
घर में झगड़े भी बढ़ गये थे। नौकरी भी करनी पड़ गई। मां कहती थी- साथ रहेंगे। नाना-मामा कहते थे कि मां को साथ रखना है तो हमारे साथ मत रहो। पिता बचपन में ही चले गये थे। मां का साथ रहने का मन प्रबल था। मां के साथ रहने से नाना-मामा से संबंध टूट गया। नाना-नानी नासिक के पास गाले गांव चले गए।
मैंने स्टैण्डर्ड कम्पनी में नौकरी करी। अच्छी तनख्वाह थी, भत्ता भी मिलता था।
सवा साल यह नौकरी की, फिर छोड़ दी।
वीर गाँव में एक मकान किराये पर लिया। मां को रखा। कालेज में फिर दाखिला ले लिया था। फिर बी. ए. किया। बी. ए. पास करने के बाद चाय की कम्पनी में नौकरी की थी। तभी मां का स्वर्गवास हो गया।
इसके बाद मैं पूरी तरह मुक्त हो गया। सब जगह से संबंध टूट गया था। शादी के चक्कर में मैं नहीं पड़ा।
सन् 1939 में माँ का देहावसान हुआ था। तभी शिवानन्दजी के आश्रम में चला गया था।
उन्होंने वापिस भेज दिया। बोले अभी सन्यास का वक्त नहीं आया है, उन्होंने ही इन्दौर भेज दिया।
विशेष अभ्यास इन्दौर में ही बढ़ा। भण्डारी मिल में नौकरी स्टोर कीपर की थी।
जस्टिस जामेकर के यहां रहने की सुविधा मिल गयी थी।
स्वामी राम तब इन्दौर आये हुए थे। उन्हीं के माध्यम से जस्टिस जामेकर से मिलना हुआ था, फिर उन्हीं के यहां रहने की व्यवस्था हो गई थी। स्वामी राम गीता पर प्रवचन देते थे।
ज्ञानेश्वरी, गीता रहस्य में भी पहले पढ़ चुका था।
अब अभ्यास बढ़ गया था।
अनुभव होने लग गए थे। संकल्प शक्ति बलवान हो गई थी। मन में जो विकार आते हैं, उनकी पहचान होने लग गई थी। विचार ही सार, और इससे परे जाना ही साध्य है- यह समझ में आ गया था। चौबीस घंटे जो विचार मन को घेरे रहते हैं, वे आ गये और गये तो ठीक है- महत्व नहीं रहा। पर कुछ गहरे चले गए तो स्वप्न बनकर आयेंगे, और अधिक गहरे चले गये तो भोगना पड़ जाएगा, यह अनुभव भी होने लग गया था।
जस्टिस जामेकर की आलमारी में ”चेतन्य चरितामृत” के सम्पूर्ण खण्ड रखे हुए थे। उसे पढ़ने की इच्छा थी। पर काफी खण्ड होने के कारण मन में यह विचार उठा कि कभी बीमार पड़ेंगे तो पढेंगे।
संकल्प उठा, तो तभी मन में विचार उठा कि गलत संकल्प हो गया है। चिन्तन होते ही संकल्प गहरा हो गया। फिर उसका पश्चाताप हुआ।
फिर मैं उसे भूल गया।
कुछ दिन बाद स्वामी राम का पत्र आया था। कश्मीर में श्री नगर से 18 मील दूर उनका आश्रम था। मैं भी निमन्त्रण पाकर चला गया था। विवेकानन्द जी के संस्मरण अमरनाथ की यात्रा के बारे में पढ़े थे। वही मन था। उनके निर्देशानुसार उनके एक शिष्य जो वकील थे। उनके साथ मैं भी यात्रा पर गया। पहलगांव तक बस थी। फिर चन्द वाड़ी। तथा चन्दनबाड़ी से-बर्फ ही बर्फ पर पैदल चला न गया।
वापिस आये, तब तो कुछ मालूम ही नहीं पड़ा। बस, चमड़ी काली पड़ गई थी। बर्फ पर भी मैं इन्हीं कपड़ों, तथा इसी कपड़े के जूते पर चला था।
इन्दौर वापिस आने के बाद ड्यूटी पर गया। कुछ दिन बाद एक जगह जाना था। वहां खाना था। भोजन करते-करते घुटने के नीचे टांगे जूझने लग गई थीं। उठा नहीं गया। जो पास बैठा था, उससे भी नहीं कहा। मैं धीरे-धीरे बाहर आया। पांव में दर्द शुरू हो गया था। सड़क से तांगा लिया। तुकोगंज पहुंच गया।
लोहे का फाटक बंद था। अंदर चला। कदम ठीक से नहीं पड़ रहे थे। मैं वैसे ही लेट गया।
लेटते ही नींद आ गई।
साढ़े पांच बजे जज साहब आ गये थे। नियमानुसार इस समय मैं उनके पास होता था। मै नहीं दिखा तो वे मेरे कमरे में आ गये।
मैंने आंखे खोली। उन्होंने पूछा - क्या बात है ?
मैंने कहा - मेरे पांव झूझ रहे हैं।
बाथरूम तक चला नहीं गया। लकड़ी के सहारे धीरे-धीरे चला। रात को दो बजे जूझना पांवों का बंद हो गया था। दर्द शुरू हो गया, बेशुमार दर्द हुआ। चलना बंद हो गया। डेढ महिना बीमार रहा। डॉ0 मुखर्जी को बुलाया गया था। वे सुबह नौ बजे आये। करीब बीस मिनट देखा। उन्होंने जामेकर साहब से कहा -‘लकवा’ है। जामेकर साहब, डाक्टर साहब को जब छोड़कर आए तो मुझसे बोले जीवन यहां ऐसे ही चलता रहता है, घबराओ मत।
तभी मुझे अचानक अपना संकल्प याद आ गया। मैंने उनसे कहा - मुझे चेतन्य चरितामृत ला दीजिये।
मैंने उस दिन से ही पढ़ना शुरू कर दिया था। जिस दिन सारे भाग खत्म करते हुए दोपहर के दो बजे थे मै उठकर खड़ा हो गया। दोपहर की चाय मिसेज जामेकर बनाती थीं। वे तब रसोई में ही थी। मैं वहीं चला गया। मैंने उनसे कहा चाय बन गई हो तो मैं भी यहीं ले लूंगा।
वे देखते ही बोली कैसे आ गए।
मैंने कहा - मैं ठीक हो गया।
मैं बगीचे मे घूमने लग गया। पांच बजे तक घूमता रहा।
जब उनकी कार आई तो फाटक मैंने ही खोला।
गाड़ी अंदर आ गई। पोर्च में आई तो उतरे। बोले यहां कैसे ? मैंने कहा मैं ठीक हो गया।
वो बोले चलकर दिखाओ।
उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
कमजोरी आ गई थी। फिर धीरे-धीरे शाम को खाना भी शुरू किया। उसके पहले मै एक ही बार खाना खाता था। आठ दिन बाद जब दुबारा ड्यूटी पर गया। तो लोगों ने कहा अभी ठीक हुआ तो क्या हुआ, फिर बीमारी हो जायेगी।
इससे मै यह समझ गया था कि विचार करते समय भी  सावधानी रखनी चाहिए। किसी के बारे में कुछ भी बुरा सोचा तो उसका भी फल भोगना पड़ता है। कहना तो उससे भी और आगे की बात है।
फिर अपने-आप अंकुश लग ही गया था, तथा यह भी पता चल गया था कि बीमारी का पोषण भी मन से ही होता है। बीमारी का चिन्तन नहीं होना चाहिए। इससे बीमारी बढ़ जाती है।
बीमारी के लिए जगह है ही नहीं, तो बीमारी अपने-आप चली जाती है। संसार विकल्पों पर ही आधारित है।
मैंने स्वामी राम से अमरनाथ यात्रा में पूछा था।
तब वे बोले राम नाम जपा करो, यही साधन है।
औरो से भी पूछा था, पर सब इधर उधर भटकाते ही रहे।
नाद श्रवण मुझे बम्बई में, बचपन में ही हो गया था। इंजीनियर साहब ने बचपन में बताया था। एक दिन बैठे-बैठे जब मन थक गया था, निर्विचार की स्थिति आ गई थी - तब जोर से सुनायी दिया था। पर तब अधिक जानकारी नहीं थी। डर भी लगा। पूछा तो लोगों ने अपनी बुद्धि से कुछ का कुछ बतला दिया था। फिर अभ्यास यहीं बढ़ता रहा। अनावश्यक विचारों को जगह नहीं देना है, मन को इधर-उधर भटकने नहीं देना है, यही करना है, यह बात तभी समझ में आ गयी थी। बचपन में पुरानी बातें याद जल्दी आती है, कोई बात हुई स्मृति आ जाती है। पर अब मन जाता तो था, परन्तु जैसे सतर्कता आ गई थी - वह वहीं रूक जाता था। वही अभ्यास बढ़ने लग गया। फिर तो बातें सुनते हुए भी बातें अन्दर नहीं जाती थी। दूसरों की बातें सुनते ही विचार चित्र में ढल जाता था। परन्तु अंदर नहीं पहुंचे तो कुछ भी नहीं होता। बाहर से बाहर कर दें, तो अन्दर घुस नहीं सकती। सुन ली और छोड़ दी देखते हुए भी अन्दर नहीं पहुंचंेगी।
फिर ”मात्रा स्पर्शस्तु कौन्तेय” यही स्मरण रहेगा। विषयों और इन्द्रियों का सहयोग होते हुए ही सुख-दुख होता है। जब तक विषयों और इन्द्रियों के बीच जरा सा भी अन्तर रह जाता है, तो फिर उसकी अनुभूति नही होती यही अभ्यास बढ़ता गया।
‘औरा’ बचपन में चौपाटी पर घूमते हुए पहली बार देखा था। उस वक्त यह ध्यान भी नहीं था कि यह औरा भी होगा। चौपाटी पा शाम के समय लोगों को देखें तो मेला सा रहता है। कुछ लोग घूमते हैं, कुछ बैठे रहते हैं, तब सूर्यास्त का समय था। अंधेरा होने को था। तब दस बीस लोगों के पीछे गोल गोल घेरा देखा था। तब याद आया। इंजीनियर साहब ने बताया था कि ‘औरा’ क्या होता है ? उस वक्त जो दिखा था, वह केवल लकीरें ही थीं। बाद में पता लगा, जब साफ होता है, तब घेरा बन जाता है। उसको इतने वर्ष हो गये हैं कि अब कुछ याद नहीं रहा। आप पूछते हैं, तो बताने के लिए उत्तर देना पड़ रहा है।
हां, बचपन में ही मार्ग मिल सा गया था। पर प्रगति मां की मृत्यु के बाद ही हो पायी थी।
इन्दौर में जज साहब के यहां रहने का अवसर मिला। प्रयोग का अवसर वहीं मिला। वहीं पर ही रमण साहित्य से परिचय मिला। वहीं अरूणाचल भी गया। रमण महर्षि को पास से देखा था और अपनी यात्रा को भी समझा।
हां, यह जरुर है कि बचपन से पता जरुर था, पर आज जो पाया है, वहां तक पहुंचने में सारा वक्त चला गया है। क्योंकि इस मार्ग पर दिक्कत यह है कि धारणा जैसी होती है - वैसे ही अनुभव आते हैं, जाते है। वहां पहुचकर पता लगता है कि यहां आने केे बाद आगे कुछ नहीं है।
मेरे साथ भी यही दिक्कत रही। सही बात बताने वाले इस मार्ग पर नही है।
इन्दौर से नौकरी छोड़ने के बाद ऋषिकेश गया, वहां संन्यास लिया। वहीं बकानी, राजस्थान आने का आदेश मिला। न तो मुझे यहां की भाषा आती थी, न यहां का पता था। आजादी मिली। तब सन्यास लिया, उसके साल दो साल बाद बकानी आ गया। तब यहां पहले जैसी स्थिति नही थी। पिछड़ा इलाका था। यहां कुछ दिन गीता पर व्याख्यान दिया। फिर अनुभव तो हुआ - सन्यास तो मिल गया पर समाज के लिए भी कुछ करना चाहिए। गांव के बच्चों को लेकर पढ़ाना शुरू किया। फिर गुरूकुल की स्थापना हुई। आवासीय स्कूल पच्चीस साल तक चलाया। फिर एक दिन पाया-उससे भी विश्रान्ति लेनी है, अतः सब सरकार को सौंप दिया। सिर्फ कुटिया है, वह भी दी जा युकी है।
वहीं यह अभ्यास बढ़ता रहा। जो मेरा पथ था, गन्तव्य था मुझे मिल गया।
मैंने यहां सन्यास लेने के बाद गुरुकुल चलाया। अठारह अठारह घंटे काम किया पढ़ाना भी था, व्यवस्था भी करी, लेखा का काम भी किया। सरकारी महकमों के चक्कर भी लगाये। जैसा मैंने कहा, हमें सामाजिक क्रियाशीलता में रहकर अभ्यास करना है। परे जाकर रहने का मतलब है, जड़ हो जाना। रात को समय मिल पाता था, तभी मेरा अभ्यास आगे बढ़ता गया। शारीरिक क्रिया थी नहीं सब मानसिक यहां होता है, यह अनवरत है, यही सहजावस्था है। जो सहज है, जो जागरुकता है, वह परे जाकर नहीं, किसी एकान्त अरण्य में रहकर नहीं, समाज के भीतर उसकी क्रियाशीलता में पानी होती है, और पाना है गहरी शांति और आनन्द, और कुछ नहीं। मेरा जीवन प्रयोग की खुली किताब है। शास्त्र यहां नहीं हैं। मैंने प्रवचन नहंी दिया। जो कहा, इस जीवन के आधार पर कहा है-वही किया है, तभी कहता हूं तुम्हें खुद की शरण में जाना है। खुद की। मैं खुली किताब हूं। मेरे पास भौतिक सुविधाओं के नाम पर बस, यह शरीर है, बाकी सब छूट गया है। और है-गहरी शांति, यहां आनन्द ही आनन्द है। यही इस यात्रा का छोर है।


नरेन्द्र नाथ